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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


लेकिन ज्यों-ज्यों गांव निकट आता था, शंखधर के पांव सुस्त पड़ते जाते थे। उसे यह शंका होने लगी कि वह यहाँ से चले न गये हों। अब उनसे भेंट न होगी। वह इस शंका को कितना ही दिल से निकालना चाहता था; पर वह अपना आसन न छोड़ती थी।

साईगंज दिखायी देने लगा। स्त्री-पुरुष खेतों में अनाज काटते नजर आने लगे। अब वह गांव के डांड़ पर पहुंच गया। कई आदमी उसके सामने से होकर निकल भी गये; पर उसने किसी से कुछ नहीं पूछा? अगर किसी ने कह दिया-बाबा जी हैं, तो वह क्या करेगा? सहसा मन्दिर में से आदमी को निकलते देखकर वह चौंक पड़ा, अनिमेष नेत्रों से उसकी ओर एक क्षण देखा, फिर उठा कि उस पुरुष के चरणों पर गिर पड़े; पर पैर थरथरा गया, मालूम हुआ, कोई नदी उसकी ओर बही चली आती है-वह मूर्छित होकर गिर पड़ा।

शंखधर को होश आया तो अपने को मन्दिर के बरामदे में चक्रधर की गोद में पड़ा हुआ पाया। चक्रधर चिन्तित नेत्रों से उसके मुंह की ओर ताक रहे थे। गांव के कई आदमी आस-पास खड़े पंखा झल रहे थे। आह! आज कितने दिनों के बाद शंखधर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है! वह पिता की गेद में लेटा हुआ था।

शंखधर ने फिर आँखें बन्द कर लीं।

चक्रधर ने स्नेह– मधुर में पूछा-क्यों बेटा, अब कैसी तबीयत है?

कितने स्नेह-मधुर शब्द थे! किसी के कानों ने भी ये कोमल शब्द सुने हैं? उसने कोई उत्तर नहीं दिया। उसका जी चाहा, इन चरणों पर सिर रखकर खूब रोये। इससे बढ़कर और किसी सुख की वह कल्पना ही न कर सकता था।

चक्रधर ने फिर पूछा-क्यों बेटा, कैसी तबीयत है?

शंखधर ने कातर स्वर से कहा– अब तो अच्छा हूं। आप ही का नाम बाबा भगवानदास है?

चक्रधर– हां, मुझी को भगवानदास कहते हैं।

शंखधर– मैं आप ही के दर्शनों के लिए आया हूं। आपके दर्शन हुए, मैं कृतार्थ हो गया। अब मेरे संकट कट जायेंगे। आप ही मेरा उद्धार कर सकते हैं।

चक्रधर का चित्त अस्थिर हो गया। उस युवक के रूप और वाणी में न जाने कौन-सी बात थी, जो उनके मन में उससे बात-चीत करने की प्रबल इच्छा हो रही थी। जरा पूछना चाहिए कि यह युवक कौन है? क्यों मुझसे मिलने के इतना उत्सुक है? कितना सुशील बालक है! इसकी वाणी में कितना विनय है लिए और स्वरूप देवकुमारों का-सा है।

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