उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
गगन-मण्डल पर उषा का लोहित प्रकाश छा गया। तारागण किसी थके हुए पथिक की भांति उज्जवल आंखें बन्द करके विश्राम करने लगे। पक्षी गम वृक्षों पर चहकने लगे; पर साईगंज का कहीं पता न चला।
सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे-छोटे मकान बालिकाओं के घरौंदे की तरह दिखायी दिये। यह साईगंज आ गया। शंखधर का कलेजा धक-धक करने लगा। उसके जीर्ण में अद्भुत स्फूर्ति का संचार हो गया, पैरों में न जाने कहां से दुगुना बल आ गया।
पहाड़ी की चढ़ाई कठिन थी। शंखधर को ऊपर चढ़ने का रास्ता न मालूम था, न कोई आदमी ही दिखाई देता था, जिससे रास्ता पूछ सके। वह कमर बांध कर चढ़ने लगा।
गांव के आदमी ने ऊपर से आवाज दी-इधर से कहां आते हो भाई? रास्ता तो पश्चिमी ओर से है! कहीं पैर फिसल जाये, तो २॰॰ हाथ नीचे जाओ।
लेकिन शंखधर को इन बातों के सुनने की फुरसत कहां थी? दम-के-दम में वह ऊपर पहुंच गया और पूछा-बाबा भगवानदास अभी यहीं हैं न?
किसान-कौन बाबा भगवानदास?
शंखधर– बाबा भगवानदास को नहीं जानते? वह इसी गांव में तो आये हैं? साईगंज यही है न?
किसान-साईंगंज! अ-र-र! साईगंज तो तुम पूरब छोड़ आये। इस गांव का नाम बेंदों है।
शंखधर ने हताश होकर कहा– तो साईगंज यहाँ से कितनी दूर है?
किसान-साईगंज तो पड़ेगा यहाँ से कोई पाँच कोस; मगर रास्ता बहुत बीहड़ है।
शंखधर कलेजा थामकर बैठ गया। पांच कोस की मंजिल, उस पर रास्ता बहुत बीहड़। उसने आकाश की ओर एक बार नैराश्य में डूबी हुई आँखों से देखा और सिर झुकाकर सोचने लगा-यह अवसर फिर हाथ न आयेगा? अगर आराध्यदेव के दर्शन आज न किये, तो फिर न कर सकूंगा।
बैठने का समय फिर आयेगा। आज या तो इस तपस्या का अन्त हो जायेगा, या इस जीवन का ही। वह उठ खड़ा हुआ।
किसान ने कहा– क्या चल दिये भाई? चिलम-विलम तो पी लो।
लेकिन शंखधर इसके पहले ही चल चुका था। वह कुछ नहीं देखता, कुछ नहीं सुनता, चुपचाप किसी अन्य शक्ति की भांति चला जा रहा है। रास्ते में जो मिलता, उससे वह पूछता, साईगंज कितनी दूर है? जवाब मिलता-बस, आगे साईंगंज है, तो फिर यही जवाब मिलता, बस आगे साईगंज है। आखिर दोपहर होते-होते उसे दूर से एक मन्दिर कलश दिखायी दिया। एक चरवाहा से पूछा-यह कौन गांव है? उसने कहा साईगंज आ गया।
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