उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
वृद्धा– बेटा, जिन महात्मा की मैंने तुमसे चर्चा की है, उनकी सूरत तुमसे बहुत मिलती है।
शंखधर– माता, कुछ बता सकती हो, वह यहां से किधर गये?
वृद्धा– यह तो कुछ नहीं कह सकती; पर वह उत्तर की ओर गये हैं।
शंखधर ने कांपते हुए हृदय से पूछा-उनका नाम क्या था माताजी?
वृद्धा– नाम तो उनका भगवानदास, पर यह उनका असली नाम नहीं मालूम होता था; असली नाम कुछ और ही था।
एक युवती ने कहा– यहां उनकी तस्वीर भी तो रक्खी हुई है!
शंखधर का हृदय शतगुण वेग से धड़क रहा था। बोला-जरा वह तस्वीर मुझे दिखा दीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।
युवती लपकी हुई घर गयी, और एक क्षण में तस्वीर लिये हुए लौटी। शंखधर ने दोनों हाथों से हृदय को सँभालते हुए तस्वीर पर एक भयकम्पित दृष्टि डाली और पहचान गया। हां, चक्रधर ही की तस्वीर थी। उसकी देह शिथिल पड़ गयी। हृदय का धड़कना शान्त हो गया। आशा, भय, चिन्ता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि-सा खड़ा रह गया, मानों किसी पुरानी बात को याद कर रहा हो।
सहसा उसने निद्रा से जगे हुए मनुष्य की भाँति पूछा- वह इधर उत्तर की ही ओर गये हैं न? आगे कोई गांव पड़ेगा?
वृद्धा– हां बेटा, पांच कोस पर गांव है! भला-सा उसका नाम है, हां साईगंज, लेकिन आज तो तुम यहीं रहोगे?
शंखधर ने केवल इतना कहा– नहीं माता, आज्ञा दीजिए। और खंजरी उठाकर चल खड़ा हुआ।
रात्रि के उस अगम्य अंधकार में शंखधर भागा चला जा रहा था! उसके पैर पत्थर के टुकड़ों से छलनी हो गये थे। सारी देह थककर चूर हो गयी थी, भूख के मारे आंखों के सामने अंधेरा छाया जाता था, प्यास के मारे कण्ठ में कांटे पड़ रहे थे, पैर कहीं रखता था, पड़ते कहीं थे, पर वह गिरता-पड़ता भागा चला जाता था। अगर वह प्रात:काल तक साईगंज पहुंचा, तो सम्भव है, चक्रधर कहीं चले जायं और फिर उस अनाथ की पांच साल की मेहनत और दौड़-धूप पर पानी न फिर जाय।
हिंस्र पशुओं का भयंकर गर्जन सुनाई देता था, अंधेरे में खड्ड और खाईं का पता न चलता था, पर उससे अपने प्राणों की चिंता न थी। उसे केवल यह धुन थी- ‘मुझे सूर्योदय से पहले साईगंज पहुंच जाना चाहिए।’
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