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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


एक युवती ने पूछा-बाबाजी, अब तो बहुत देर हो गयी है, यहीं ठहर जाओ न। आगे तो बहुत दूर तक कोई गांव नहीं है।

शंखधर– आपकी इच्छा है माता, तो यहीं ठहर जाऊँगा। भला, माताजी यहां कोई महात्मा तो नहीं रहते?

दूसरी रमणी ने कहा– अभी कई दिन हुए, एक महात्मा आकर टिके थे; पर वह साधुओं के भेष में न थे। वह यहाँ एक महीने-भर रहे। तुम एक दिन पहले यहाँ आ जाते, तो उनके दर्शन हो जाते।

एक वृद्धा बोली– साधु-सन्त तो बहुत देखे; पर ऐसा उपकारी जीव नहीं देखा। तुम्हारा घर कहां है, बेटा?

शंखधर– कहां बताऊं माता, यों ही घूमता-फिरता हूं।

वृद्धा– अभी तुम्हारे माता-पिता हैं न बेटा?

शंखधर– कुछ मालूम नहीं माता! पिताजी तो बहुत दिन हुए कहीं चले गये। मैं तब दो-तीन वर्ष का था। माताजी का हाल नहीं मालूम।

वृद्धा– तुम्हारे पिता क्यों चले गये? तुम्हारी माता से कोई झगड़ा हुआ था?

शंखधर– नहीं माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ। गृहस्थी के माया-मोह में नहीं पड़ना चाहते थे।

वृद्धा– तो तुम्हें घर छोड़े कितने दिन हुए?

शंखधर– पांच साल हो गये, माता! पिताजी को खोजने निकल पड़ा था; पर अब तक कहीं पता न चला।

एक युवती ने वृद्धा से कहा– अम्मां, इनकी सूरत महात्मा जी से मिलती है कि नहीं, कुछ तुम्हें दिखायी देता है?

वृद्धा– हां रे कुछ-कुछ तो मालूम होता है। क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी?

शंखधर– आँखें खूब बड़ी-बड़ी हैं?

शंखधर– हां माताजी, इतनी बड़ी-बड़ी आँखें तो मैंने किसी की देखी नहीं।

वृद्धा– लम्बे-लम्बे गोरे आदमी हैं?

शंखधर का हृदय धक-धक करने लगा। बोला-हां माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है।

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