उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
राज-भवन अब भूतों का डेरा हो गया है। उसका अब कोई स्वामी नहीं रहा। राजा साहब अब महीनों नहीं आते। वह अधिकतर इलाके ही में घूमते रहे हैं। उनके अत्याचार की कथाएं सुनकर लोगों के रोयें खड़े हो जाते हैं। सारी रियासत में हाहाकार मचा हुआ है। राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती। उनके सारे सद्भाव शंखधर के साथ चले गये। विधाता ने अकारण ही उन पर इतना कठोर आघात किया है। वह उस आघात का बदला दूसरों से ले रहे हैं।
अब राजा साहब के पास जाने का किसी को साहस नहीं होता। मनोरमा को देखकर तो वह जामे से बाहर हो जाते हैं। अहल्या भी उनसे कुछ कहते थर-थर कांपती है। अपने प्यारों को खोजने के लिए वह तरह-तरह के मंसूबे बांधा करती है; लेकिन कहे किससे? उसे ऐसा विदित होता है कि ईश्वर ने उसकी भोग लिप्सा का यह दण्ड दिया है। यदि वह अपने पति के घर जाकर प्रायश्चित करे, तो कदाचित ईश्वर उसका अपराध क्षमा कर दें! लेकिन हाय रे मानव हृदय! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता। जाना तो चाहती है; लेकिन उसके साथ यह शर्त है कि कोई बुलाये अगर राजा साहब मुंशीजी से इस विषय में कुछ संकेत कर दें, तो उसके लिए अवश्य बुलावा आ जाय, पर राजा साहब से तो भेंट ही नहीं होती और भेंट भी होती है, तो कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।
इसमें सन्देह नहीं कि अपने मन की बात मनोरमा से कह देती, तो बहुत आसानी से काम निकल जाता; लेकिन अहल्या का मन मनोरमा से न पहले कभी मिला था न अब मिलता था। उससे यह बात कैसे कहती?
एक दिन अहल्या का चित्त इतना उद्विग्न हुआ कि वह संकोच और झिझक छोड़कर मनोरमा के पास आ बैठी। मनोरमा के सामने प्रार्थी के रूप में आते हुए उसे जितनी मानसिक वेदना हुई, उसका अनुमान इसी से किया जा सकता है कि अपने कमरे से यहां तक आने में उसे कम-से-कम दो घण्टे लगे। कितनी ही बार द्वार तक आकर लौट गयी। जिसकी सदैव अवहेलना की, उसके सामने अब अपनी गरज लेकर जाने में उसे लज्जा आती थी; लेकिन जब भगवान ने ही उसका गर्व तोड़ दिया था, तो तब झूठी ऐंठ से क्या हो सकता था।
अहल्या ने कहा– मैं प्रायश्चित करना चाहती हूं। और आपसे उसके लिए सहायता मांगने आयी हूं। मुझे अनुभव हो रहा है कि यह सारी विडम्बना मेरे विलास-प्रेम का फल है और मैं इसका प्रायश्चित करना चाहती हूं। मेरा मन कहता है कि यहां से निकलकर मैं अपना मनोरथ पा जाऊंगी। यह सारा दण्ड मेरी विलासान्धता का है। आप जाकर अम्माजी से कह दीजिए। मुझे बुला लें। इस घर में आकर मैं अपना सुख खो बैठी और इसी घर से निकल कर ही उसे पाऊंगी।
उसने कहा– अच्छा; अहल्या, मैं आज ही जाती हूं।
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