उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
इसके चौथे दिन मुंशी वज्रधर ने राजा साहब के पास रुखसती का संदेशा भेजा। राजा साहब इलाके पर थे। सन्देशा पाते ही जगदीशपुर आये अहल्या का कलेजा धक-धक करने लगा कि राजा साहब कहीं आ न जायं। इधर-उधर छिपती फिरती थी कि उनका सामना न हो जाय। उसे मालूम होता था कि राजा साहब ने रुखसती मंजूर कर ली है: पर अब जाने की लिए वह बहुत उत्सुक न थी। यहां से जाना तो चाहती थी: पर जाते दुःख होता था। वह इसी घर को अपना घर समझने लगी थी। ससुराल उसके लिए बिरानी जगह थी। कहीं निर्मला ने कोई बात कह दी, तो वह क्या करेगी? जिस घर से मान करके निकली थी, वहीं अब विवश होकर जाना पड़ रहा था। इस बातों को सोचते-सोचते आखिर उसका दिल इतना घबराया कि वह राजा साहब के पास जाकर बोली– आप मुझे क्यों विदा करते हैं? मैं नहीं जाती।
राजा साहब ने हंसकर कहा– कोई लड़की ऐसी भी है, जो खुशी से ससुराल जाती हो? और कौन पिता ऐसा है, जो लड़की को खुशी से विदा करता हो? मैं कब चाहता हूं कि तुम जाओ; लेकिन मुंशी वज्रधर की आज्ञा है, और यह मुझे शिरोधार्य करनी पड़ेगी। वह लड़के के बाप हैं, मैं लड़की का बाप हूं, मेरी और उनकी क्या बराबरी? और बेटी, मेरे दिल में भी अरमान हैं, उसको पूरा करने का और कौन अवसर आएगा? शंखधर होता, तो उसके विवाह में वह अरमान पूरा होता, अब वह तुम्हारे गौने में पूरा होगा।
अहल्या इसका क्या जवाब देती?
दूसरे दिन राजा साहब ने विदाई की तैयारियां करनी शुरू कर दीं। सारे इलाके के सोनार पकड़ बुलाए गये और गहने बनने लगे। इलाके ही के दर्जी कपड़े सीने लगे। हलवाइयों के कढ़ाह चढ़ गये और पकवान बनने लगे। घर की सफाई और रंगाई होने लगी। राजाओं, रईसों और अफसरों को निमन्त्रण भेजे जाने लगे। सारे शहर की वेश्याओं को बयाने दे दिये गये। बिजली की रोशनी का इन्तजाम होने लगा। अहल्या यह सामान देख-देख कर दिल में झुंझलाती और शर्माती थी। सोचती– कहां से-कहां मैंने यह विपत्ति मोल ले ली? अब इस बुढ़ापे में मेरा गौना? मैं मरने की राह देख रही हूं, यहां गौने की तैयारी हो रही है।
राजा विशालसिंह ने जिस हौसले से अहल्या का गौना किया, वह राजाओं रईसों में भी बहुत कम देखने में आता है। तहसीलदार साहब के घर में इतनी चीजों को रखने की जगह भी न थी। बर्तन, कपड़े, शीशे के सामान, लकड़ी की अलभ्य वस्तुएं, मेवे, मिठाईयां, गायें, भैंसें– इनका हफ्तों तक तांता लगा रहा। दो हाथी और पांच घोड़े भी मिले, जिनके बांधने के लिए घर में जगह न थी पांच लौंडियां अहल्या के साथ आयीं। यद्यपि तहसीलदार साहब ने नया मकान बनवाया था, पर वह क्या जानते थे कि एक दिन यहां रियासत जगदीशपुर की आधी सम्पत्ति आ पहुंचेगी? घर का कोना-कोना सामानों से भरा हुआ था। कई पड़ोसियों के मकान भी अंट उठे। उस पर लाखों रुपये नगद मिले वह अलग। तहसीलदार साहब को तो सब कुछ लाये, पर उन्हें देख-देख रोते और कुढ़ते थे कोई भोगने वाला नहीं!
दिन में बीसों ही बार चक्रधर पर बिगड़ते– नालायक! आप तो आप गया अपने साथ लड़के को भी ले गया। न जाने कहां मारा-मारा फिरता होगा, देश का उपकार करने चला है! सच कहा है घर की रोयें, बन की सोयें। घर के आदमी मरें, परवाह नहीं; दूसरे के लिए जान देने को तैयार! अब बताओ, इन हाथी, घोड़े, मोटरों और गाड़ियों को लेकर क्या करूं? अकेले किस-किस पर बैठूं? बहू है, उसे रोने से फुरसत नहीं। बच्चों की मां है, उनसे अब मारे शोक के उठा नहीं जाता, कौन बैठे। यह सामान तो मेरे जी का जंजाल हो गया है।
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