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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


अहल्या यहां आकर और भी पछताने लगी। वह रनिवास के विलासमय जीवन से विरक्त होकर यहां प्रायश्चित करने के इरादे से आयी थी, पर वह विपत्ति उसके साथ यहां भी आयी। सम्पत्ति से गला छुड़ाना चाहती थी, पर सम्पत्ति उससे और चिमट गयी थी। वह वहां कुछ देर शान्ति से बैठ सकती थी, कुछ देर हंस-बोलकर जी बहला लेती थी। किसी के ताने-मेहने न सुनने पड़ते थे। यहां निर्मला बाणों से छेदती और घाव पर नमक छिड़कती रहती थी। बहू के कारण वह पुत्र से वंचित हुई। बहू के ही कारण पोता भी हाथ से गया ऐसी बहू को वह पान-फूल से पूज न सकती थी। अहल्या के साथ जो महाराजिनें आयीं थीं, उनका पकाया हुआ भोजन वह ग्रहण न कर सकती थी। अहल्या से भी वह छूत मानती थी। इन दिनों मंगला भी आयी हुई थी। उसका जी चाहता था कि यहां की सब चीजें समेट ले जाऊं। पर अहल्या अपनी चीजों को तीन-तेरह न होने देना चाहती थी। और इससे ननद-भावज में कभी-कभी खटपट हो जाती थी।

इस तरह कई महीनें गुजर गये; अहल्या का आशा-दीपक दिन-दिन मन्द होता गया। वह कितना ही चाहती थी कि मोह-बन्धन से अपने को छुड़ा ले; पर मन पर कोई वश न चलता था। उसके मन में बैठा हुआ कोई नित्य कहा करता था– जब तक मोह में पड़ी रहोगी, पति-पुत्र के दर्शन न होंगे। पर विश्वास कौन दिला सकता था कि मोह टूटते ही उसके मनोरथ पूरे हो जायेंगे। तब क्या वह भिखारिणी जीवन व्यतीत करेगी? सम्पत्ति के हाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कौन आश्रय रह जायेगा?

अहल्या बार-बार व्रत करती कि अब अपने सारे काम अपने हाथ से करूंगी, अब सदा एक ही जून भोजन किया करूंगी, मोटा-से-मोटा अन्न खाकर जीवन व्यतीत करूंगी, लेकिन उसमें किसी व्रत पर स्थिर रहने की शक्ति न रह गयी थी। विलासिता ने उसकी क्रिया-शक्ति को निर्बल कर दिया था।

यहां रहकर वह अपने उद्धार के लिए कुछ कर सकेगी, यह बात शनैः-शनैः अनुभव से सिद्ध हो गयी।

अब उसे वागीश्वरी की याद आयी। सुख के दिन वही थे, जो उसके साथ कटे। असली मैका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहां मिला, वह फिर न नसीब हुआ। वह स्नेह, सुख स्वप्न हो गया। सास मिली वह इस तरह की, ननद मिली वह इस ढंग की, मां थी ही नहीं, केवल बाप को पाया; मगर उसके बदले में क्या-क्या देना पड़ा।

अब अहल्या को रात-दिन धुन रहने लगी कि किसी तरह वागीश्वरी के पास चलूं, मानों वहां उसके सारे दुःख दूर हो जायेंगे।

आखिर एक दिन अहल्या ने सास से यह चर्चा कर ही दी। निर्मला ने कुछ भी आपत्ति नहीं की। शायद वह खुश हुई कि किसी तरह यहां से चले। मंगला तो उसके जाने का प्रस्ताव सुनकर हर्षित हो उठी। जब वह चली जाएगी, तो घर में मंगला का राज हो जाएगा। जो चीज चाहेगी, उठा ले जाएगी, कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकने वाला न रहेगा।

दूसरे दिन अहल्या वहां से चली। अपने साथ कोई साज-सामान न लिया। साथ की लौंडियां चलने को तैयार थीं; पर उसने किसी को साथ न लिया। केवल एक बुड्ढे कहार को पहुंचाने के लिए ले लिया। और उसे भी आगरे पहुंचने के दूसरे ही दिन विदा कर दिया।

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