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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


लेकिन अहल्या हाथ-मुंह धोने न उठी। वागीश्वरी की आदर्श पतिभक्ति देखकर उसकी आत्मा उसका तिरस्कार कर रही थी। अभागिनी! इसे पतिभक्ति कहते हैं। सारे कष्ट झेलकर स्वामी की मर्यादा का पालन कर रही है। नैहरवाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालांकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता। सारे कष्ट झेलती है और खुशी से झेलती है। एक तू है मैके की सम्पत्ति देखकर फूल उठी, अन्धी हो गयी। राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में मुझे पति की परवा ही न रही। तूने सम्पत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की। वह तुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे, तू न गयी, राज्य-सुख तुझसे न छोड़ा गया! रो, अपने कर्मों को।

वागीश्वरी ने फिर कहा– अभी तक बैठी ही है। हां, लौंडी पानी नहीं लायी न, कैसे उठेगी। ले, मैं पानी लाये देती हूं, हाथ मुंह धो डाल। तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियां सेंकती हूं। देखूं, तुझे अब भी भाती है कि नहीं। तू मेरी रोटियों का बहुत बखान करके खाती थी।

अहल्या ये स्नेह में सने शब्द सुनकर पुलकित हो उठी। इस ‘तू’ में तो जो सुख था, वह ‘आप’ और ‘सरकार’ में कहां। बचपन के दिन आंखों में फिर गये। एक क्षण के लिए उसे अपने सारे दुःख विस्मृत हो गये। बोली– अभी तो भूख-प्यास नहीं है अम्माजी, बैठिए कुछ बातें कीजिए। मैं आप से दुःख की कथा कहने के लिए व्याकुल हो रही हूं। बताइए, मेरा उद्धार कैसे होगा?

वागीश्वरी ने गम्भीर भाव से कहा– पति-प्रेम से वंचित होकर स्त्री के उद्धार का कौन उपाय है, बेटी! पति ही स्त्री का सर्वस्व है। जिसने अपना सर्वस्व खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा? जिसको लेकर तूने पति को त्याग दिया, उसको त्यागकर ही पति को पायेगी। जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगा, तुझे उस त्यागी पुरुष के दर्शन न होंगे।

अहल्या– अम्मांजी, सत्य कहती हूं मैं केवल शंखधर के हित के विचार करके उनके साथ न गयी।

वागीश्वरी– उस विचार में क्या तेरी भोग-लालसा न छिपी थी? खूब ध्यान करके सोच। तू इससे इनकार नहीं कर सकती?

अहल्या ने लज्जित होकर कहा– हो सकता है, अम्मांजी, मैं इनकार नहीं कर सकती।

वागीश्वरी– सम्पत्ति यहां भी तेरा पीछा करेगी, देख लेना? जो उससे भागता है, उसके पीछे दौड़ती है। मुझे शंका होती है कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाय। एक बार चूकी, तो १४ वर्ष रोना पड़ा। अबकी चूकी तो बाकी उम्र रोते ही गुजर जाएगी।

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