लोगों की राय

उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

274 पाठक हैं

‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


अहल्या के आने की खबर पाकर मुहल्ले की सैकड़ों औरतें टूट पड़ीं। शहर के बड़े घरों की स्त्रियां भी आ पहुंचीं। शाम तक तांता लगा रहा। कुछ लोग डेपुटेशन बनाकर संस्थाओं के लिए चन्दे मांगने आ पहुंचे। अहल्या को इन लोगों से जान बचानी मुश्किल हो गयी किस-किस से अपनी विपत्ति कहे? अपनी गरज के बावले अपनी कहने में मस्त रहते हैं, वह किसी की सुनते ही कब हैं? इस वक्त अहल्या को फटे-हालों यहां आने पर बड़ी लज्जा आयी। वह जानती कि यहां इस वक्त हरबोंग मच जायेगा तो साथ दस-बीस हजार के नोट लेती आती। उसे अब इस टूटे-फूटे मकान में ठहरते भी लज्जा आती थी। जब से देश ने जाना कि वह राजकुमारी है, तब से वह कहीं बाहर न गयी थी। कभी काशी रहना हुआ कभी जगदीशपुर। दूसरे शहर में आने का उसे यह पहला ही अवसर था। अब उसे मालूम हुआ कि धन केवल भोग की वस्तु नहीं है। उससे यश और कीर्ति भी मिलती है। भोग से तो उसे घृणा हो गयी थी, लेकिन यश का स्वाद उसे पहली बार मिला। शाम तक उसने १५-२॰ हजार के चंदे लिख दिये और मुंशी वज्रधर को रुपये भेजने के लिए पत्र भी लिख दिया। खत पहुंचने की देर थी। रुपये आ गये। फिर तो उसके द्वार पर भिक्षुओं का जमघट रहने लगा। लंगड़ों-अंधों से लेकर जोड़ी और मोटर पर बैठने वाले भिक्षुक भिक्षा-दान मांगने आने लगे। कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमंत्रण आता, कहीं से टी पार्टी में सम्मिलत होने का। कुमारी-सभा, बालिका विद्यालय, महिला क्लब आदि संस्थाओं ने उसे मान-पत्र दिये, और उसने ऐसे सुन्दर उत्तर दिये कि उसकी योग्यता और विचार-शीलता का सिक्का बैठ गया। आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’ वाली कहावत हुई। तपस्या करने आयी थी, यहां सभ्य समाज की क्रीड़ाओं में मग्न हो गयी। अपने अभीष्ट का ध्यान ही न रहा।

अहल्या को अब रोज ही किसी-न-किसी जलसे में जाना पड़ता और वह बड़े शौक से जाती। दो ही सप्ताह में उसकी कायापलट-सी हो गयी। यश लालसा ने धन की उपेक्षा का भाव उसके दिल से निकाल दिया। वास्तव में वह समारोहों में अपनी मुसीबतें भूल गयी। अच्छे-अच्छे व्याख्यान तैयार करने में वह तत्पर रहने लगी, मानों उसे नशा हो गया है। वास्तव में यह नशा ही था। यश-लालसा से बढ़कर दूसरा नशा नहीं।

वागीश्वरी पुराने विचारों की स्त्री थी। उसे अहल्या का यों, घूम-घूमकर व्याख्यान देना और रुपये लुटाना अच्छा न लगता था। एक दिन उसने कह ही डाला– क्यों री अहल्या, तू अपनी सम्पत्ति लुटा कर ही रहेगी?

अहल्या ने गर्व से कहा– और धन है ही किस लिए, अम्माजी? धन में यही बुराई है कि इससे विलासिता बढ़ती है, लेकिन इसमें परोपकार करने की सामर्थ्य भी है।

वागीश्वरी ने परोपकार के नाम से चिढ़कर कहा– तू जो कर रही है, यह परोपकार नहीं; यश लालसा है।

दूसरे दिन प्रातःकाल डाकिया शंखधर का पत्र लेकर आ पहुंचा जो जगदीशपुर और काशी से घूमता हुआ आया था। अहल्या ने पत्र पढ़ते ही उछल पड़ी और दौड़ी हुई वागीश्वरी के पास जाकर बोली– अम्मां, देखो, लल्लू का पत्र आ गया। दोनों जने एक ही जगह हैं। मुझे बुलाया है।

वागीश्वरी– तो बस, अब तू चली ही जा। चल, मैं भी तेरे साथ चलूंगी।

अहल्या– आज पूरे पांच साल बाद खबर मिली है, अम्मांजी! मुझे आगरे आना फल गया। यह तुम्हारे आशीर्वाद का फल है, अम्माजी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book