उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
वागीश्वरी– मैं तो उस लड़के के जीवट को बखानती हूं कि बाप का पता लगाकर ही छोड़ा।
अहल्या– इस आनन्द में आज उत्सव मनाना चाहिए, अम्माजी।
वागीश्वरी– उत्सव पीछे मनाना, पहले वहां चलने की तैयारी करो। कहीं और चले गये, तो हाथ मलकर रह जाओगी।
लेकिन सारा दिन गुजर गया और अहल्या ने यात्रा की तैयारी न की। वह अब यात्रा के लिए उत्सुक न मालूम होती थी आनन्द का पहला आवेश समाप्त होते ही वह इस दुविधे में पड़ गयी थी कि वहां जाऊं या न जाऊं? वहां जाना केवल दस-पांच दिन या महीने के लिए जाना न था वरन् राजपाट से हाथ धो लेना और शंखधर के भविष्य को बलिदान करना था। वह जानती थी पितृभक्त शंखधर पिता को छोड़कर किसी भांति न आयेगा और मैं भी प्रेम के बन्धन में फंस जाऊंगी। उसने यही निश्चय किया कि शंखधर को किसी हीले से बुला लेना चाहिए। उसका मन कहता था कि शंखधर आ गया, तो स्वामी के दर्शन भी उसे अवश्य होंगे। इस वक्त वहां जाकर वह अपनी प्रेमाकांक्षाओं की वेदी पर अपने पुत्र के जीवन को बलिदान न करेगी। जैसे इतने दिनों पति-वियोग में जली है, उसी तरह कुछ दिन और जलेगी। उसने मन में यह निश्चय करते शंखधर के पत्र का उत्तर दे दिया। लिखा– मैं बीमार हूं, बचने की कोई आशा नहीं; बस एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है। तुम आ जाओ, तो शायद जी उठूं लेकिन न आये तो समझ लो अम्मां मर गयीं। अहल्या को विश्वास था कि यह पत्र पढ़कर शंखधर दौड़ा चला आयेगा और स्वामी भी यदि उसके साथ न आयेंगे तो उसे आने से रोकेंगे भी नहीं।
संध्या समय वागीश्वरी ने पूछा– क्या जाने का इरादा नहीं है?
अहल्या ने शर्माते हुए कहा– अभी तो अम्माजी मैंने लल्लू को बुलाया है। अगर वह न आयेगा, तो चली जाऊंगी।
वागीश्वरी– लल्लू के साथ क्या चक्रधर भी आ जायेंगे? तू ऐसा अवसर पाकर भी छोड़ देती है। न जाने तुझ पर क्या विपत्ति आने वाली है!
अहल्या अपने सारे दुःख भूलकर शंखधर के राज्याभिषेक की कल्पना में विभोर हो गयी।
२४
राजा विशालसिंह की हिंसा-वृत्ति किसी प्रकार शान्त न होती थी। ज्यों-ज्यों अपनी दशा पर उन्हें दुःख होता था, उनके अत्याचार और भी बढ़ते थे। उनके हृदय मैं अब सहानुभूति, प्रेम और धैर्य के लिए जरा भी स्थान न था। उनकी सम्पूर्ण वृत्तियां हिंसा-हिंसा!’ पुकार रही थीं। इधर कुछ दिनों से उन्होंने प्रतिकार का एक और ही शस्त्र खोज निकाला था। उन्हें निस्सन्तान रखकर, मिली हुई सन्तान उनकी गोद से छीनकर दैव ने उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय किया था। दैव के शास्त्रालय में उनका दमन करने के लिए यही सबसे कठोर शस्त्र था। इसे राजा साहब उनके हाथों से छीन लेना चाहते थे। उन्होंने सातवां विवाह करने का निश्चय कर लिया था। राजाओं के लिए कन्याओं की क्या कमी? कई महीने से इस सातवें विवाह की तैयारियां बड़े जोरो से हो रही थीं। कई राजवैद्य रात-दिन बैठे भांति-भांति के रस बनाते रहते। पौष्टिक औषधियां चारों ओर से मंगायी जा रही थीं। राजा साहब यह विवाह इतनी धूम-धाम से करना चाहते थे कि देवताओं के कलेजे पर सांप लोटने लगे!
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