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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


रानी मनोरमा ने इधर बहुत दिनों से घर या रियासत के मामले में बोलना छोड़ दिया था। वह बोलती भी, तो सुनता कौन? राजा साहब को उसकी सूरत से घृणा हो गयी थी। मनोरमा के लिए अब वह घर नरक तुल्य था चुपचाप सारी विपत्ति सहती थी। उसे बड़ी इच्छा होती थी कि एक बार राजा साहब के पास जाकर पूछूं, मुझसे क्या अपराध हुआ है; पर राजा साहब उसे इसका अवसर ही न देते थे।

मनोरमा को आये दिन कोई-न-कोई अपमान सहना पड़ता था। उसका गर्व चूर करने के लिए रोज कोई-न-कोई षड्यन्त्र रचा जाता था। पर वह उद्दण्ड प्रकृतिवाली मनोरमा अब धैर्य और शान्ति का अथाह सागर है, जिसमें वायु के हलके-हलके झोंके से कोई आन्दोलन नहीं होता। वह मुस्कुराकर सब कुछ शिरोधार्य करती जाती है! यह विकट मुस्कान उसका साथ कभी नहीं छोड़ती। नयी रानी साहब के लिए सुन्दर भवन बनाया जा रहा था। उसकी सजावट एक बड़े आईने की जरूरत थी। हुक्म हुआ छोटी रानी के दीवान खाने के लिए बड़ा आईना उतार लाओ। मनोरमा ने यह हुक्म सुना तो मुस्करा दीं। फिर कालीन की जरूरत पड़ी। फिर वही हुक्म हुआ– छोटी रानी के दीवानखाने से लाओ। मनोरमा ने मुस्कराकर सारी कालीन दे दीं। इसके कुछ दिनों बाद हुक्म हुआ– छोटी रानी की मोटर नये भवन में लायी जाय। मनोरमा इस मोटर को बहुत पसन्द करती थी, उसे खुद चलाती थी। यह हुक्म सुना, तो मुस्करा दिया। मोटर चली गयी।

मनोरमा के पास पहले बहुत-सी सेविकाएं थीं। इधर घटते-घटते यह संख्या तीन तक पहुंच गयी थी। एक दिन हुक्म हुआ कि तीन सेविकाओं में से दो नये महल में नियुक्त की जाएं। उसके एक सप्ताह बात वह एक भी बुला ली गयी। इस हुक्म का मनोरमा ने मुस्कुराकर स्वागत किया।

मगर अभी सबसे कठोर आघात बाकी था। नयी रानी के लिए तो नया महल बन ही रहा था। उनकी माताजी के लिए एक दूसरे मकान की जरूरत पड़ी। इसलिए हुक्म हुआ कि छोटी रानी का महल खाली करा लिया जाय। रानी ने यह हुक्म सुना और मुस्करा दी। जिस हिस्से में पहले महरियां रहती थीं, उसी को उसने अपना निवास-स्थान बना लिया। द्वार पर टाट के परदे लगवा दिये। यहां भी वह उतनी ही प्रसन्न थी, जितने अपने महल में।

रात अधिक बीत गयी थी। बाहर बारात की तैयारियां हो रही थीं। ऐसा शानदार जुलूस निकालने की आयोजना की जा रही थी, जैसा इस नगर में कभी न निकला हो। गोरी फौज थी, काली फौज थी, रियासत का फौजी-बैंड था, कोतवाल घोड़े, सजे हुए हाथी, फूलों से संवरी हुई सवारी गाड़ियां, सुन्दर पालकियां– इतनी जमा की गयी थीं कि शाम से घड़ी-रात तक उनका तांता ही न टूटे। बैंड से लेकर डफले और नृसिंहे तक सभी प्रकार के बाजे थे। सैंकड़ों ही विमान सजाये गए थे और फुलवारियों की तो गिनती ही नहीं थी। सारी रात द्वार पर चहल-पहल रही और सारी रात राजा साहब सजावट का प्रबन्ध करने में व्यस्त रहे।

सारे शहर में इस जुलूस और इस विवाह का उपहास हो रहा था, नौकर चाकर तक आपस में हंसी उड़ाते थे, राजा साहब की चुटकियां लेते थे, लेकिन अपनी धुन में मस्त राजा साहब को कुछ न सूझता था, कुछ न सुनायी देता था।

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