उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चार बजते-बजते बारात निकली। जुलूस की लम्बाई दो मील से कम न थी। भांति-भांति के बाजे बज रहे थे, रुपये लुटाये जा रहे थे, पगपग पर फूलों की वर्षा की जा रही थी। सारा शहर तमाशा देखने को फटा पड़ता था।
इसी समय अहल्या और शंखधर ने नगर में प्रवेश किया और राजभवन की ओर चले किन्तु थोड़ी ही दूर गये थे कि बारात के जुलूस ने रास्ता रोक दिया। जब यह मालूम हुआ कि महाराज विशालसिंह की बारात है, तो शंखधर ने मोटर रोक दी और उस पर खड़े होकर अपना रुमाल हिलाते हुए जोर से बोले– सब आदमी रुक जायें, कोई एक कदम भी आगे न बढ़े! फौरन महाराज साहब को सूचना दो कि कुंवर शंखधर आ रहे हैं।
दम-की-दम में सारी बारात रुक गयी। ‘कुंवर’ साहब आ गये!’ यह खबर वायु के झोंके की भांति इस सिरे से उस सिरे तक दौड़ गयी। जो जहां था वहीं खड़ा रह गया। फिर उनके दर्शन के लिए लोग दौड़-दौड़कर जमा होने लगे! सारा जुलूस तितर-बितर हो गया। विशालसिंह ने यह भगदड़ देखी, तो समझे कुछ उपद्रव हो गया!
उसी क्षण शंखधर ने सामने आकर राजा साहब को प्रणाम किया।
शंखधर को देखते ही राजा साहब घोड़े से कूद पड़े और उसे छाती से लगा लिया। आज इस शुभ-मुहूर्त में वह अभिलाषा भी पूरी हो गयी, जिसके नाम को वह रो चुके थे। बार-बार कुंवर को छाती से लगाते थे; पर तृप्ति ही न होती थी। आंखों से आंसू की झड़ी लगी हुई थी। जब सारा चित्त शांत हुआ तो बोले– तुम आ गये बेटा, मुझ पर बड़ी दया की। चक्रधर को लाए हो न!
शंखधर ने कहा– वह तो नहीं आए।
राजा– आयेंगे, मेरा मन कहता है। मैं तो निराश हो गया था, बेटा! तुम्हारी माता भी चली गयीं, तुम पहले ही चले गये; फिर मैं किसका मुख देखकर जीता! जीवन का कुछ आधार चाहिए। अहल्या तभी से न जाने कहां घूम रही है।
शंखधर– वह तो मेरे साथ हैं।
राजा– अच्छा, वह भी आ गयी, वाह मेरे ईश्वर! सारी खुशियां एक ही दिन के लिए जमा कर रखीं थीं। चलो, उसे देखकर आंखें ठण्डी करुं।
बारात रुक गयी। राजा साहब और शंखधर अहल्या के पास आये। पिता और पुत्री का सम्मिलन बड़े आनन्द का दृश्य था। कामनाओं के वृक्ष, जो मुद्दत हुई, निराश-तुषार की भेंट हो चुके थे, आज लहलहाते, हरी-भरी पत्तियों से लदे हुए सामने खड़े थे। आंसुओं का वेग शांत हुआ, तो राजा साहब बोले– तुम्हें यह बारात देखकर हंसी आती होगी। सभी हंस रहे हैं; लेकिन बेटा यह बारात नहीं है। कैसी बारात और कैसा दूल्हा! यह विक्षिप्त हृदय का उद्गार है, और कुछ नहीं। मन कहता था– जब ईश्वर को मेरी सुधि नहीं, वह मुझ पर जरा भी दया नहीं करते, अकारण ही मुझे सताते हैं, तो मैं क्यों उनसे डरूं? जब स्वामी को सेवक की फिक्र नहीं, तो सेवक को स्वामी की फिक्र क्यों होने लगी? मैंने उतना अन्याय किया, जितना मुझसे हो सका। धर्म और अधर्म पाप और पुण्य के विचार दिल से निकाल डाले। आखिर मेरी विजय हुई कि नहीं?
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