उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
मुंशी वज्रधर ने यह शुभ समाचार सुना, तो फौरन घोड़े पर सवार हुए और राज भवन आ पहुंचे। शंखधर उनके आने का समाचार पाकर नंगे पांव दौड़े और उनके चरणों को स्पर्श किया? मुंशीजी ने पोते को छाती से लगा लिया और गद्गद कण्ठ से बोले– यह शुभ दिन भी देखना बदा था बेटा, इसी से अभी तक जीता हूं। यह अभिलाषा पूरी हो गयी। बस इतनी, लालसा और है कि तुम्हारा राज-तिलक देख लूं? तुम्हारी दादी बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। क्या उन्हें भूल गये?
शंखधर ने लजाते हुए कहा– जी नहीं शाम को जाने का इरादा था। उन्हीं के आशीर्वाद से तो मुझे पिताजी के दर्शन हुए। उन्हें कैसे भूल सकता हूं?
मुंशी– तुम लल्लू को अपने साथ घसीट नहीं लाये?
शंखधर– वह अपने जीवन में जो पवित्र कार्य कर रहे हैं, उसे छोड़कर कभी न आते। मैंने तो अपने को जाहिर भी नहीं किया, नहीं तो शायद मुझसे मिलना भी स्वीकार न करते।
इसके बाद शंखधर ने अपनी यात्रा का, अपनी कठिनाइयों का और पिता से मिलने का सारा वृत्तान्त कहा।
यों बातें करते हुए मुंशीजी राजा साहब के पास जा पहुंचे। राजा साहब ने बड़े आदर से उनका अभिवादन किया और बोले– आप तो इधर का रास्ता ही भूल गये।
मुंशीजी– महाराज, अब आपका और मेरा, सम्बन्ध और प्रकार का है। ज्यादा आऊँ-जाऊँ तो आप ही कहेंगे, यह अब क्या करने आते हैं, शायद कुछ लेने की नीयत-से आते होंगे। कभी जिन्दगी में धनी नहीं रहा; पर मर्यादा की सदैव रक्षा की है।
राजा– आखिर आप दिन-भर बैठे-बैठे वहां क्या करते हैं; दिल नहीं घबराता?
मुंशीजी– अब तो राजकुमार का तिलक हो जाना चाहिए। आप भी कुछ दिन शान्ति का आनन्द उठा लें।
राजा– विचार तो मेरा भी है; लेकिन मुंशीजी, न जाने क्या बात है कि जब से शंखधर आया है, क्यों मुझे शंका हो रही है कि इस मंगल में कोई-न-कोई विघ्न अवश्य पड़ेगा। दिल को बहुत समझाता हूं; लेकिन न जाने क्यों यह शंका अन्दर से निकलने का नाम नहीं लेती।
मुंशीजी– आप ईश्वर का नाम लेकर तिलक कीजिए। जब आशाएं पूरी हो गयीं; तो अब सब कुशल ही होगी। आज मेरे यहां कुछ आन्दोत्सव होगा। आजकल शहर में अच्छे-अच्छे कलावन्त आये हुए हैं, सभी आयेंगे। आपने कृपा की, तो मेरे सौभाग्य की बात होगी।
राजा– नहीं मुंशीजी, मुझे तो क्षमा कीजिए। मेरा चित्त शान्त नहीं है। आपसे सत्य कहता हूं, मुंशीजी, आज अगर मेरा प्राणान्त हो जाये, तो मुझसे बढ़कर सुखी प्राणी संसार में न होगा। शोक की पराकाष्ठा भी देख ली। अब और कुछ देखने की आकांक्षा नहीं है डरता हूं, कहीं पलड़ा फिर न दूसरी ओर झुक जाय।
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