उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
मुंशीजी देर तक बैठे राजा साहब को तस्कीन दे रहे, फिर सब महिलाओं को अपने यहां आने का निमंत्रण देकर और शंखधर को गले लगाकर वह घोड़े पर सवार हो गये। इस निर्द्वन्द्व जीवन ने चिन्ताओं को कभी अपने पास नहीं फटकने दिया। धन की इच्छा थी ऐश्वर्य की इच्छा थी, पर उन पर जान न देते थे, संचय करना तो उन्होंने सीखा ही न था। थोड़ा मिला तब भी अभाव रहा, बहुत मिला तब भी अभाव रहा। अभाव से जीवन-पर्यन्त उनका गला न छूटा। एक समय था, स्वादिष्ट भोजनों को तरसते थे। अब दिल खोलकर दान देने को तरसते हैं। क्या पाऊं और क्या दे दूं? बस फिक्र थी तो इतनी ही। कमर झुक गयी थी, आँखों से सूझता भी कम था; लेकिन मजलिस नित्य जमती थी, हंसी-दिल्लगी करने में भी कभी न चूकते थे। दिल में कभी किसी ने कीना नहीं रखा, और न कभी किसी की बुराई चेती।
दूसरे दिन संध्या समय मुंशीजी के घर बड़ी धूम-धाम से उत्सव मनाया गया। निर्मला पोते को छाती से लगाकर खूब रोयी। उसका जी चाहता था, यह मेरे ही घर रहता। कितना आनन्द होता! शंखधर से बातें करने से उसकी तृप्ति ही न होती थी। अहल्या ही के कारण उसका पुत्र हाथ से गया। पोता भी उसी के कारण हाथ से जा रहा है। इसलिए अब भी उनका मन अहल्या से न मिलता था। निर्मला को अपने बाल-बच्चों के साथ रहकर सभी प्रकार का कष्ट रहना मंजूर था। वह अब इस अन्तिम समय किसी को आंखों की ओट न करना चाहती थी। न-जाने कब दम निकल जाय, कब आंखें बन्द हो जायें। बेचारी किसी को देख भी न सके।
बाहर गाना हो रहा था। मुंशीजी शहर से रईसों की दावत का इन्तजाम कर रहे थे। अहल्या लालटेन ले-लेकर घर-भर की चीजों को देख रही थी और अपनी चीजों के तहस-नहस होने पर मन-ही-मन झुझला रही थी। उधर निर्मला चारपाई पर लेटी शंखधर की बातें सुनने में तन्मय हो रही थी।
प्रातःकाल जब शंखधर विदा होने लगे, तो निर्मला ने कहा– बेटा, अब बहुत दिन न चलूंगी। जब तक जीती हूं, एक बार रोज आया करना।
आज राजा साहब के यहां भी उत्सव था, इसलिए शंखधर इच्छा रहते हुए भी न ठहर सके।
स्त्रियां निर्मला के चरणों को अंचल से स्पर्श करके विदा हो गयी, तो शंखधर खड़े हुए। निर्मला ने रोते हुए कहा– कल मैं तुम्हारी बाट देखती रहूंगी।
शंखधर ने कहा– अवश्य आऊंगा।
जब वह मोटर पर बैठ गये, तो निर्मला द्वार पर खड़ी होकर उन्हें देखती रही। शंखधर के साथ ही उसका हृदय भी चला जा रहा था। युवकों के प्रेम में उद्धिग्नता होती है, वृद्धों का प्रेम हृदय-विदारक होता है। युवक जिससे प्रेम करता है, उससे प्रेम की आशा भी रखता है। अगर उसे प्रेम के बदले प्रेम न मिले, तो वह प्रेम को हृदय से निकालकर फेंक देगा। वृद्धजनों की भी क्या यही आशा होती है? वे प्रेम करते हैं और जानते हैं कि इसके बदले में उन्हें कुछ न मिलेगा। या मिलेगी तो दया। शंखधर की आंखों में आंसू न थे, हृदय में तड़प न थी, यों प्रसन्न-चित्त चले जा रहे थे, मानों सैर करके लौटे जा रहे हों।
मगर निर्मला का दिल फटा जाता था और मुंशी वज्रधर की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था?
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