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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।

२५

कई दिन गुजर गये। राजा साहब हरि-भजन और देवोपासना में व्यस्त थे। इधर ५-६ वर्ष में उन्होंने किसी मन्दिर की तरफ झांका भी न था। धर्मचर्चा की बहिष्कार-सा कर रखा था। रियासत में धर्म का खाता ही तोड़ दिया गया था। मगर अब एकाएक देवताओं में राजा साहब की फिर श्रद्धा हो आयी थी। धर्म-खाता फिर खोला गया और जो वृत्तियाँ बन्द कर दी गयी थीं, वे फिर बांधी गयी। राजा साहब ने फिर चोला बदला। शंखधर के लौटते ही उनका धर्मानुराग फिर जागृत हो गया। सम्पत्ति मिलने ही पर तो रक्षकों की आवश्यकता होती है।

इन दिनों राजा साहब बहुधा एकान्त में बैठे किसी चिन्ता में निमग्न रहते थे, बाहर कम निकलते थे। भोजन से भी उन्हें कुछ अरुचि हो गयी थी। वह मानसिक अंधकार जो नैराश्य की दशा में उन्हें घेरे हुए था, अब एकाएक आशा के प्रकाश से छिन्न-भिन्न हो गया था। धर्मानुराग के साथ उनका कर्त्तव्य-ज्ञान जाग पड़ा था। जैसे जीवन लीला के अन्तिम काण्ड में हमें भक्ति ही चिन्ता सवार होती है, बड़े-बड़े भोगी भी रामायण और भगवान का पाठ करने लगते हैं, उसी भांति राजा साहब को भी अब बहुधा अपनी अपकीर्ति पर पश्चात्ताप होता था।

रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। रनिवास में सोता पड़ा हुआ था। अहल्या के बहुत समझाने पर भी मनोरमा अपने पुराने भवन में न आयी। वह उसी छोटी कोठरी में पड़ी हुई थी। सहसा राजा साहब ने प्रवेश किया। मनोरमा विस्मित होकर उठ खड़ी हुई।

राजा साहब ने कोठरी को ऊपर-नीचे देखकर करुण-स्वर में कहा– नोरा, मैं आज तुमसे अपना अपराध क्षमा कराने आया हूं। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, इसे क्षमा कर दो। मनोरमा ने सजल-नेत्र होकर कहा– उन बातों को याद न कीजिए। आपको भी दुःख होता है और मुझे भी दुःख होता है। मेरा ईश्वर ही जानता है कि एक क्षण के लिए भी मेरे हृदय में आपके प्रति दुर्भावना नहीं उत्पन्न हुई।

राजा– जानता हूं नोरा, जानता हूं। तुम्हें इस कोठरी में पड़े देखकर इस समय मेरा हृदय फटा जाता है। हा! अब मुझे मालूम हो रहा है कि दुर्दिन में मन के कोमल भावों का सर्वनाश हो जाता है। और उनकी जगह कठोर एवं पाशविक भाव जागृत हो जाता है। सच तो यह है नोरा, कि मेरा जीवन ही निष्फल हो गया। मैं कभी-कभी सोचता हूं। मुझे यह रिसायत न मिली होती, तो मेरा जीवन कहीं अच्छा होता।

मनोरमा– मुझे भी अकसर यही विचार हुआ करता है।

राजा– अब, जीवन-लीला समाप्त करते समय अपने जीवन पर निगाह डालता हूं, तो मालूम होता है, मेरा जन्म ही व्यर्थ हुआ। मुझसे किसी का उपकार न हुआ। मैं गृहस्थी के उस सुख से भी वंचित रहा, जो छोटे-छोटे मनुष्यों के लिए भी सुलभ है। शंखधर अपने साथ मेरे हृदय की सारी कोमलताओं को लेता गया था। उसे पाकर आज मैं फिर अपने को पा गया हूं। लेकिन नोरा, हृदय अन्दर-ही-अन्दर कांप रहा है। मैं इस शंका को किसी तरह दिल से बाहर नहीं निकाल सकता कि कोई अनिष्ट होने वाला है।

मनोरमा– अब ईश्वर ने गयी हुई आशाओं को जिलाया है, तो अब कुशल ही होगी।

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