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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


राजा– क्या करूं नोरा, मुझे इस विचार से शान्ति नहीं होती। मुझे भय होता है कि यह किसी अमंगल का पूर्वाभास है।

यह कहते-कहते राजा साहब मनोरमा के और समीप चले आये और उसके कान के पास मुंह ले जाकर बोले-यह शंका बिलकुल अकारण ही नहीं है, नोरा! रानी देवप्रिया के पति मेरे बड़े भाई होते थे। उनकी सूरत शंखधर से बिलकुल मिलती है। जवानी में मैंने उनको देखा था। हूबहू यही सूरत थी। तिल-बराबर भी फर्क नहीं। भाई साहब का चित्र भी मेरे अलबम में है। तुम यही कहोगी कि यह शंखधर का ही चित्र है। इतनी समानता तो जुड़वां भाइयों में भी नहीं होती।

पुराना नौकर नहीं है, नहीं तो मैं इसकी साक्षी दिला देता। पहले शंखधर की सूरत भाई साहब से उतनी ही मिलती थी, जितनी मेरी। अब तो ऐसा जान पड़ता है कि स्वयं भाई साहब ही आ गये हैं।

मनोरमा– तो इसमें शंका की क्या बात है? उसी वृक्ष का फल शंखधर भी तो है।

राजा– आह! नोरा, तुम यह बात नहीं समझ रही हो। तुम्हें कैसे समझा दूं? इसमें भंयकर रहस्य है, नोरा! मैंने अबकी शंखधर को देखा, तो चौंक पड़ा। सच कहता हूं उसी वक्त मेरे रोयें खड़े हो गये।

मनोरमा ने अबकी दृढ़ता से कहा– शंकाएं निर्मूल हैं।

राजा ने जांघ पर हाथ पटककर कहा– नोरा, तुम अब भी नहीं समझीं। खैर, कल से तुम नये भवन में रहोगी। यह मेरी आज्ञा है।

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए। बिजली के निर्मल प्रकाश में मनोरमा उन्हें खड़ी देखती रही। गर्व से उसका हृदय फूला न समाता था। गर्व इस बात का था कि मेरे स्वामी मेरा इतना आदर करते हैं। प्रेम सहृदयता ही का रसमय रूप है। प्रेम के अभाव में सहृदयता ही दम्पत्ति के सुख का मूल हो जाती है।

राजा साहब को अब किसी तरह शान्ति न मिलती थी। कोई-न-कोई भयंकर विपत्ति आने वाली है, इस शंका को वह दिल से न निकाल सकते थे। दो-चार प्राणियों को जोर-जोर से बातें करते सुनकर वह घबरा जाते थे कि कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी। शंखधर कहीं जाता, तो जब तक वह कुशल से लौट न आये, वह व्याकुल रहते थे। उनका जी चाहता था कि यह मेरी आँखों के सामने से दूर न हो। उसके मुख की ओर देखकर उनकी आंखें आप– ही-आप सजल हो जाती थीं। वह रात को उठकर ठाकुरद्वारे में चले जाते और घण्टों ईश्वर की वन्दना किया करते। जो शंका उनके मन में थी, उसे प्रकट करने का उन्हें साहस न होता था। वह उसे स्वयं न व्यक्त करते थे। वह अपने मरे हुए भाई की स्मृति को मिटा देना चाहते थे, पर वह सूरत आंखों से न टलती थी। कोई ऐसी क्रिया, ऐसी आयोजना, ऐसी विधि न थी, जो इस पर मंडरानेवाले संकट का मोचन करने के लिए न की जा रही हो; पर राजा साहब को शान्ति न मिलती थी।

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