उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
संध्या हो गयी थी। राजा साहब ने मोटर मंगवायी और मुंशी वज्रधर के मकान पर जा पहुंचे। मुंशीजी की संगीत-मण्डली जमा हो गयी थी। संगीत ही उनका दान व्रत, ध्यान और तप था। उनकी सारी चिन्ताएँ और सारी बाधाएँ संगीत स्वरों में विलीन हो जाती थीं। मुंशीजी राजा साहब को देखते ही खड़े होकर बोले महाराज! आज ग्वालियर के आचार्य का गाना सुनाऊं। आपने बहुत गाने सुने होंगे, पर इनका गाना कुछ और ही चीज है।
राजा साहब मन में मुंशीजी की बेफिक्री पर झुंझलाये। ऐसे प्राणी भी संसार में हैं, जिन्हें अपने विलास के आगे किसी वस्तु की परवाह नहीं। शंखधर से मेरा और इनका एक-सा सम्बन्ध है, पर अपने संगीत में मस्त है। और मैं शंकाओं से व्यग्र हो रहा हूं सच है-‘सबसे अच्छे मूढ़ जिन्हें न व्यापत जगत गति।’ ‘बोले-इसीलिए तो आया ही हूं, पर जरा देर के लिए आपसे कुछ बातें करना चाहता हूं।
दोनों आदमी अलग एक कमरे में जा बैठे। राजा सोचने लगे, किस तरह बात शुरू करूं? मुंशीजी ने उनको असंमजस में देखकर कहा– मेरे लायक जो काम हो, फरमाइए। आप बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। बात क्या है?
राजा– मुझे मालूम हो रहा है कि संसार में मन लगाना ही सारे दुःख का मूल है। जगदीशपुर-राज्य को भोगना ही मेरे जीवन का लक्ष्य था। मैंने अपने जीवन में जो कुछ किया, इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए। अपने जीवन पर उसने एक क्षण के लिए विचार नहीं किया। जीवन का सदुपयोग कैसे होगा, इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। जब राज्य न था, तब अवश्य कुछ दिनों के लिए सेवा के भाव मन में जागृत हुए थे-वह भी बाबू चक्रधर के सत्संग से। राज्य मिलते ही मेरी कायापलट हो गयी। फिर कभी आत्मचिन्तन की नौबत न आयी। शंखधर को पाकर मैं निहाल हो गया। मेरे जीवन में ज्योति-सी आ गयी। मैं सब कुछ पा गया, पर अबकी जब से शंखधर लौटा है, मुझे उसके विषय में भयंकर शंका हो रही है। आपने मेरे भाई साहब को देखा था?
मुंशी– जी नहीं, उन दिनों तो मैं यहाँ से बाहर नौकर था।
राजा– भाई साहब की सूरत आज तक मेरी आंखों में फिर रही है। ये देखिये, उनकी तस्वीर है।
राजा साहब ने एक फोटो निकालकर मुंशीजी को दिखाया। मुंशीजी उसे देखते ही बोले-यह तो शंखधर की तस्वीर है।
राजा– नहीं साहब, यह मेरे बड़े भाई का फोटो है। शंखधर ने तो अभी तक तस्वीर ही नहीं खिंचवायी। न जाने तस्वीर खिंचवाने से उसे क्यों चिढ़ है!
मुंशी– मैं इसे कैसे मान लूं? यह तस्वीर साफ शंखधर की है।
राजा– तो मालूम हो गया कि मेरी आंखें धोखा नहीं खा रही थीं।
मुंशी– तब तो बड़ी विचित्र बात है।
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