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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


राजा– अब आपसे क्या अर्ज करूं? मुझे ब़ड़ी शंका हो रही है, रात को नींद नहीं आती। दिन को बैठे-बैठे चौंक पड़ता हूं, दो प्राणियों की सूरत कभी इतनी नहीं मिलती। भाई साहब ने ही फिर मेरे घर में जन्म लिया है, इसमें मुझे बिलकुल शंका नहीं रही। ईश्वर ही जाने क्यों उन्होंने कृपा की है, अगर शंखधर का बाल भी बांका हुआ, तो मेरे प्राण न बचेंगे।

मुंशी– ईश्वर चाहेंगे, तो सब कुशल होगा। घबराने की कोई बात नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है।

राजा साहब उठ खड़े हुए और चलते-चलते गम्भीर भाव से बोले-जो बात पूछने आया था, वह तो भूल ही गया। आपने साधु-सन्तों की बहुत सेवा की है। मरने के बाद जीव को किसी बात का दुःख तो नहीं होता?

मुंशी– सुना तो यही है कि होता है और उससे अधिक होता है जितना जीवन में।

राजा– झूठी बात है, बिलकुल झूठी। विश्वास नहीं आता। उस लोक के दुःख-सुख और ही प्रकार के होंगे। मैं तो समझता हूं, किसी बात की याद ही न रहती होगी। मेरे बाद जो कुछ होना है, वह तो होगा ही, आपसे इतना ही कहना है कि अहल्या को ढाढ़स दीजिएगा। मनोरमा की ओर से मैं निश्चिन्त हूं। वह सभी दशाओं में संभल सकती है। अहल्या उस वज्राघात को न सह सकेगी।

मुंशीजी ने भयभीत होकर राजा साहब का हाथ पकड़ लिया और सहज नेत्र होकर बोले-आप इतने निराश क्यों होते हैं? ईश्वर पर भरोसा कीजिए। सब कुशल होगी।

राजा– क्या करूं, मेरा हृदय आपका-सा नहीं है। शंखधर का मुंह देखकर मेरा खून ठण्डा हो जाता है। वह मेरा नाती नहीं, शत्रु है। इससे कहीं अच्छा था कि निस्सन्तान रहता। मुंशीजी, आज मुझे ऐसा मालूम है कि निर्धन होकर मैं इससे कहीं सुखी रहता।

राजा साहब द्वार की ओर चले। मुंशीजी भी उनके साथ मोटर तक आये। शंका के मारे मुंह से शब्द न निकलता था। दीन भाव से राजा साहब की ओर देख रहे थे, मानो-प्राण-दान मांग रहे हों।

राजा साहब ने मोटर पर बैठकर कहा– अब तकलीफ न कीजिए। जो बात कही है, उसका ध्यान रखिएगा।

मुंशीजी मूर्तिवत खड़े रहे। मोटर चली गयी।

अभी राजा विशालसिंह द्वार पर आकर खड़े ही थे कि अहल्या ने विलाप करके कहा– हाय बेटा! तुम मुझे छोड़कर कहाँ चले गये? क्या इसीलिए मुझे आगरा से लाये थे?

राजा साहब ने यह करुण-विलाप सुना और उनके पैरों-तले से जमीन निकल गयी। वह अपनी आंखों से जो कुछ न देखना चाहते थे, वह देखना पड़ा और इतनी जल्द! अभी ही मुंशी वज्रधर के पास से लौटे थे। आह! कौन जानता था विधि इतनी जल्द यह सर्वनाश कर देगा! इससे पहले कि वह अपने जीवन का अन्त कर दें, विधि ने उनकी आशाओं का अन्त कर दिया।

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