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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


राजा साहब ने कमरे में जाकर शंखधर के मुख की ओर देखा। उनके जीवन का आधार निर्जीव पड़ा हुआ था। यही दृश्य आज से पचास वर्ष पहले उन्होंने देखा था।

उनके मुख से विलाप का एक शब्द भी न निकला। आंखों से आंसू की एक बूंद भी न गिरी। खड़े-खड़े भूमि पर गिर पड़े और दम निकल गया।

२६

शंखधर के चले जाने के बाद चक्रधर को संसार शून्य जान पड़ने लगा।

सेवा का वह पहला उत्साह लुप्त हो गया। उसी सुन्दर युवक की सूरत आखों में नाचती रहती। उसी की बातें कानों में गूंजा करतीं। भोजन करने बैठते, तो उसकी जगह खाली देखकर उनके मुंह में कौर न धंसता। हरदम कुछ खोये-खोये से रहते। बार-बार यही जी चाहता था कि उसके पास चला जाऊं। बार-बार चलने का इरादा करते पर रुक जाते। साईगंज से जाने का अब उनका जी नहीं चाहता था। इतने दिनों तक वह एक जगह कभी नहीं रहे। शंखधर जिस कम्बल पर सोता था, उसे वह रोज झाड़-पोंछकर तह करते हैं। शंखधर अपनी खंजरी यहीं छोड़कर गया है।

चक्रधर के लिए संसार में इससे बहुमूल्य कोई वस्तु नहीं है। शंखधर की पुरानी धोती और फटे हुए कुरते को सिरहाने रखकर सोते हैं। रमणी अपने सुहाग के जोड़े की भी इतनी देख-रेख न करती होगी।

संध्या हो गयी है। चक्रधर मन्दिर के दालान में बैठे हुए चलने की तैयारी कर रहे हैं। अब यहां नहीं रहा जा सकता। उस देवकुमार को देखने के लिए आज वह बहुत विकल हो रहे हैं।

रात को उन्हें एक भंयकर स्वप्न दिखाई दिया। क्या देखते हैं कि शंखधर एक नदी के किनारे उनके साथ बैठा हुआ है। सहसा दूर से एक नाव आती हुई दिखाई दी। उसमें से मन्नासिंह उतर पड़ा। उसने हंसकर कहा– बाबूजी, यही शंखधर हैं न? मैं बहुत दिनों से खोज रहा हूं। राजा साहब इन्हें बुला रहे हैं। शंखधर उठकर मन्नासिंह के साथ चला। दोनों नाव पर बैठे, मन्नासिंह डांड चलाने लगा। चक्रधक किनारे ही खड़े रह गये। नाव थोड़ी ही दूर जाकर चक्कर खाने लगी। शंखधर ने दोनों हाथ उठाकर उन्हें बुलाया। वह दौड़े, पर इतने में नाव डूब गई। एक क्षण में फिर नाव ऊपर आ गयी। मन्नासिंह पूर्ववत डांड चला रहा था, शंखधर का पता न चला।

चक्रधर जोर से एक चीख मारकर जग पड़े। उनका हृदय धक-धक कर रहा था। उनके मुख से ये शब्द निकल पड़े-ईश्वर! यह स्वप्न है, या होने वाली बात! उसी वक्त उठ बैठे, बकुचा लिया और चल खड़े हुए।

चांदनी छिटकी हुई थी। चारों ओर सन्नाटा था। पर्वत-श्रेणियां अभिलाषाओं की समाधियों-सी मालूम होती थीं। वृक्षों के समूह श्मशान से उठने वाले धुएं की तरह नजर आते थे। चक्रधर कदम बढ़ाते हुए पथरीली पगडण्डियों पर चले जाते थे।

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