उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चक्रधर रोये नहीं-गम्भीर एवं सुदृढ़ भाव से बोले-ईश्वर की इच्छा! मुझे किसी ने एक पत्र तक न लिखा। बीमारी क्या थी?
मुंशी– अजी, सिर तक न दुःखा, बीमारी होना किसे कहते हैं? बस, होनहार! तकदीर! रात को भोजन करके बैठे एक पुस्तक पढ़ रहे थे कि स्वर्ग की राह ली। किसी हकीम वैद्य की अक्ल काम नहीं करती कि क्या हो गया था। जो सुनता है, दांतों तले अंगुली दबाकर रह जाता है। बेचारे राजा साहब भी इस शोक में चल बसे। तुमने उसे भुला दिया था; पर उसे तुम्हारे नाम के रट लगी हुई थी। इस दुनिया में क्या कोई रहे! जी भर गया। अब तो जब तक जीना है, तब तक रोना है। ईश्वर बड़ा ही निर्दयी है।
चक्रधर ने लम्बी सांस खींचकर कहा– मेरे कर्मों का फल है। ईश्वर को दोष न दीजिए।
मुंशी– तुमने ऐसे कर्म किए होंगे; मैंने नहीं किए। मुझे क्यों इतनी बड़ी चोट लगायी? मैं भी अब तक ईश्वर को दयालु समझता था; लेकिन अब वह श्रद्धा नहीं रही। गुणानुवाद करते सारी उम्र बीत गयी। उसका यह फल! उस पर कहते हो ईश्वर को दोष न दीजिए। ऐसे निर्दयी की महिमा कौन गाये और क्यों गाये? मुरदे आदमी तुम्हारी आँखों से आँसू भी नहीं निकलते, खड़े ताक रहे हो। मैं कहता हूं-रो लो, नहीं तो कलेजे में नासूर पड़ जाएगा। बड़े-बड़े त्यागी देखे हैं; लेकिन जो पेट भरकर रोया नहीं, उसे फिर हंसते नहीं देखा। आओ, अन्दर चलो। बहू ने दीवार से सिर पटक दिया, पट्टी बांधे पड़ी है। तुम्हें देखकर उसे धीरज हो जाएगा। मैं डरता हूं कि वहां जाकर कहीं तुम भी रो न पड़ो, नहीं तो उसके प्राण ही निकल जायेंगे।
यह कहकर मुंशीजी ने उनका हाथ पकड़ लिया और अंतःपुर तक ले गये। अहल्या को उनके आने की खबर मिल गयी। उठना चाहती थी, पर उठने की शक्ति न थी।
चक्रधर ने सामने आकर कहा– अहल्या!
अहल्या ने फिर चेष्टा की। बरसों की चिंता, कई दिनों के शोक और उपवास एवं बहुत-सा रक्त निकल जाने के कारण शरीर जीर्ण हो गया था। करवट घूमकर दोनों हाथ पति के चरणों की ओर बढ़ाए. पर वह चरणों को स्पर्श न कर सकी, हाथ फैले रहे गये, और एक क्षण में भूमि पर लटक गये। चक्रधर ने घबराकर उसके मुख की ओर देखा। निराशा मुरझाकर रह गयी थी। नेत्रों में करुण याचना भरी हुई थी।
चक्रधर ने रुंधे हुए स्वर में कहा– अहल्या, मैं आ गया, अब कहीं न जाऊंगा ईश्वर से कहता हूं कहीं न जाऊंगा। हाय ईश्वर! क्या तू मुझे यही दिखाने के लिए यहाँ लाया था।
अहल्या ने एक बार तृषित, दीन एवं तिरस्कामय नेत्रों से पति की ओर देखा। आंखें सदैव के लिए बन्द हो गयीं।
उसी वक्त मनोरमा आकर द्वार पर खड़ी हो गयी। चक्रधर ने आंसुओं को रोकते हुए कहा– रानीजी, जरा आकर इन्हें चारपाई से उतरवा दीजिए।
मनोरमा ने अन्दर आकर अहल्या का मुख देखा और रोकर बोली-आपके दर्शन बदे थे, नहीं तो प्राण तो कब के निकल चुके थे। दुखिया का कोई भी अरमान पूरा न हुआ।
यह कहते-कहते मनोरमा की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी।
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