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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


रानी– सूरत कैसी है बता सकता है?

माली– बड़ी-बड़ी आंखे हैं हुजूर, लम्बे आदमी हैं। एक-एक बाल पक रहा है।

रानी ने उत्सुकता से कहा– आये तो मुझे जरूर बुला लेना।

रानी पिंजरा लिये हुए चली आयी। रात-भर वही मैना उसके ध्यान में बसी रही। उसकी बातें कान में गूंजती रहीं।

चार बजे वह ऊपर के कमरे में जा बैठी और उस आदमी की राह देखने लगी। वहां से माली का मकान साफ दिखायी देता था। बैठे-बैठे बड़ी देर हो गयी। अंधेरा होने लगा। रानी ने एक गहरी सांस ली। शायद अब न आयेंगे।

सहसा उसने देखा, एक आदमी दो पिंजरे दोनों हाथों में लटकाये बाग में आया। मनोरमा का हृदय बांसों उछलने लगा। उसने सोचा, मुझे अभी बुलाने आता होगा पर माली न आया और वह आदमी वहीं पिंजरा रखकर चला गया। मनोरमा अब वहां न रह सकी। हाय! हाय वह चले जा रहे हैं। तब वहीं जमीन पर लेटकर वह फफक-फफककर रोने लगी।

सहसा माली ने आकर कहा– सरकार, वह आदमी दो पिंजरे रख गया है। और कह गया है कि फिर कभी और चिड़िया लेकर आऊंगा।

मनोरमा ने कठोर स्वर में पूछा-तूने मुझसे उस वक्त क्यों नहीं कहा?

माली पिंजरे को उसके सामने जमीन पर रखता हुआ बोला-सरकार, मैं उसी वक्त आ रहा था, पर उसी आदमी ने मना किया। कहने लगा, अभी सरकार को क्यों बुलाओगे? मैं फिर कभी और चिड़ियां लाकर उनसे आप ही मिलूंगा।

रानी कुछ न बोली– पिंजरे में बन्द दोनों चिड़ियों को सजल नेत्रों से देखने लगी।

।। समाप्त ।।


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