उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
छुट्टियों के दिन शंखधर पितृगृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है। निर्मला की आँखें उसे देखने से तृप्त ही नहीं होतीं। दादा और दादी दोनों उसकी बालोत्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं; उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं, ऐसा जान पड़ता है, मानों चक्रधर स्वयं बाल-रूप धारण करके उनका मन हरने आ गया है।
एक दिन निर्मला ने कहा– बेटा, तुम यहीं आके क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो तो यह घर काटने दौड़ता है।
शंखधर ने कुछ सोचकर गम्भीर भाव से कहा– अम्मांजी तो आती ही नहीं। वह क्यों कभी यहां नहीं आतीं, दादीजी?
निर्मला– क्या जाने बेटा, मैं उसके मन की बात क्या जानूं? तुम कभी कहते नहीं। आज कहना, देखो क्या कहती है?
शंखधर– नहीं दादीजी, वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिनों में मैं गद्दी पर बैठूंगा तो यही मेरा राजभवन होगा। तभी अम्माजी आयेंगी।
जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गयी।
सहसा शंखधर ड्योढ़ी में खड़ा हो गया और बोला-दादीजी आपसे कुछ मांगना चाहता हूं।
निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गद्गद होकर बोली-क्या मांगते हो, बेटा?
शंखधर– मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो।
निर्मला ने पोते को कंठ से लगाकर कहा– भैया, मेरा तो रोयां-रोयां तुम्हें आशीर्वाद दिया करता है। ईश्वर तुम्हारी मनोकामनाएँ पूरी करें।
शंखधर घर पहुंचा तो अहल्या ने पूछा-आज इतनी देर कहां लगाई बेटा, मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूं।
शंखधर घर पहुंचा तो ऐसी बहुत देर नहीं हुई, अम्मां! जरा दादीजी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक सन्देशा भेजा है।
अहल्या– क्या सन्देशा है, सुनूं? कुछ तुम्हारे बाबू जी की खबर तो नहीं मिली है।
शंखधर– नहीं। बाबूजी की खबर नहीं मिली। तुम कभी-कभी वहां क्यों नहीं चली जातीं।
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