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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


अहल्या ने ऊपरी मन से हां तो कह दिया, लेकिन भाव से साफ मालूम होता था कि वह वहां जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती तो कहती-वहां से तो एक बार निकाल दी गयी, अब कौन मुंह लेकर जाऊं? क्या अब मैं कोई दूसरी हो गयी हूं।

अहल्या तश्तरी में मिठाइयां और मेवे लायी और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली-वहां तो कुछ जल-पान न किया होगा, खा लो आज तुम इतने उदास क्यों हो?

शंखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा– इस वक्त तो खाने को जी नहीं चाहता, अम्मां!

एक क्षण के बाद उसने कहा– क्यों अम्मांजी, बाबूजी को हम लोगों को याद भी कभी आती होगी?

अहल्या ने सजल नेत्र होकर कहा– क्या जाने बेटा, याद आती तो काले कोसों बैठे रहते।

शंखधर– क्या वह बड़े निष्ठुर हैं अम्मां?

अहल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी। उसका कंठ-स्वर अश्रुप्रवाह में डूबा जा रहा था।

शंखधर ने फिर कहा– मुझे तो मालूम होता है, अम्मांजी कि वह बहुत ही निर्दयी हैं, इसी से हमें उन लोगों का दु:ख नहीं जान पड़ता। मेरा तो कभी-कभी ऐसा चित्त होता है कि देखूं तो प्रणाम तक न करूं, कह दूं-आप मेरे होते कौन हैं, आप ही ने तो हम लोगों को त्याग दिया है।

अब अहल्या चुप न रह सकी, कांपते हुए स्वर में बोली-बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहां उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूं। हम लोगों की याद एक क्षण के लिए भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने-पीने का ध्यान भी न रहता होगा। हाय! यह सब मेरा ही दोष है, बेटा! उनका कोई दोष नहीं।

शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा– अच्छा अम्मांजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जायेंगे कि नहीं?

अहल्या– तुझे? मैं तो जानती हूं न पहचान सकें। तब तू जरा-सा बच्चा था। आज उनको गये दसवां साल है। न-जाने कैसे होंगे। भगवान करें जहां रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जाएगी।

शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था। उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला-लेकिन अम्मांजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊं। वह चाहे किसी वेष में हों, मैं पहचान लूंगा।

अहल्या– नहीं बेटा, तुम भी उन्हें पहचान न सकोगे। तुमने उनकी तस्वीरें ही तो देखी हैं। ये तस्वीरें बारह साल पहले की हैं। फिर, उन्होंने केश भी बढ़ा लिए होंगे।

शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा फिर अपने कमरे में आया और चुपचाप बैठकर कुछ सोचने लगा। वह यहां से भाग निकलने के लिए विकल हो रहा था।

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