लोगों की राय

उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


निर्मला आंसू पोंछती हुई बोली–किसी ने कुछ कहा नहीं बहिन, भला वहां मुझे कौन कुछ कहता?

सुधा–तो फिर मुझसे बोली क्यों नहीं, और आते-ही-आते रोने लगीं?

निर्मला–अपने नसीबों को रो रही हूं, और क्या।

सुधा–तुम यों न बतलाओगी, तो मैं कसम दूंगी।

निर्मला–कसम-कसम न रखाना भाई, मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा, झूठ किसे लगा दूं?

सुधा–खाओ मेरी कसम।

निर्मला–तुम तो नाहक ही जिद करती हो।

सुधा–अगर तुमने न बताया निर्मला, तो मैं समझूंगी, तुम्हें जरा भी प्रेम नहीं है। बस, सब जबानी जमा–खर्च है। मैं तुमसे किसी बात का पर्दा नहीं रखती और तुम मुझे गैर समझती हो। तुम्हारे ऊपर मुझे बड़ा भरोसा था। अब जान गई कि कोई किसी का नहीं होता।

सुधा कीं आंखें सजल हो गई। उसने बच्ची को गोद से उतार लिया और द्वार की ओर चली! निर्मला ने उठाकर उसका हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली–सुधा, मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं, मत पूछो। सुनकर दुख होगा और शायद मैं फिर तुम्हें अपना मुंह न दिखा सकूं। मैं अभगिनी ने होती, तो यह दिन ही क्यों देखती? अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि संसार से मुझे उठा ले। अभी यह दुर्गति हो रही है, तो आगे न जाने क्या होगा?

इन शब्दों में जो संकेत था, वह बुद्विमती सुधा से छिपा न रह सका। वह समझ गई कि डॉक्टर साहब ने कुछ छेड़-छाड़ की है। उनका हिचक-हिचककर बातें करना और उसके प्रश्नों को टालना, उनकी वह ग्लानिमये, कांतिहीन मुद्रा उसे याद आ गई। वह सिर से पांव तक कांप उठी और बिना कुछ कहे-सुने सिंहनी की भांति क्रोध से भरी हुई द्वार की ओर चली। निर्मला ने उसे रोकना चाहा, पर न पा सकी। देखते-देखते वह सड़क पर आ गई और घर की ओर चली। तब निर्मला वहीं भूमि पर बैठ गई और फूट-फूटकर रोने लगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book