उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
२६
निर्मला दिन भर चारपाई पर पड़ी रही। मालूम होता है, उसकी देह में प्राण नहीं है। न स्नान किया, न भोजन करने उठी। संध्या समय उसे ज्वर हो आया। रात भर देह तवे की भांति तपती रही। दूसरे दिन ज्वर न उतरा। हां, कुछ-कुछ कम हो गया था। वह चारपाई पर लेटी हुई निश्चल नेत्रों से द्वार की ओर ताक रही थी। चारों ओर शून्य था, अन्दर भी शून्य बाहर भी शून्य। कोई चिन्ता न थी, न कोई स्मृति, न कोई दु:ख, मस्तिष्क में स्पन्दन की शक्ति ही न रही थी।
सहसा रुक्मिणी बच्ची को गोद में लिये हुए आकर खड़ी हो गई। निर्मला ने पूछा–क्या यह बहुत रोती थी?
रुक्मिणी–नहीं, यह तो सिसकी तक नहीं। रात भर चुपचाप पड़ी रही, सुधा ने थोड़ा-सा दूध भेज दिया था।
निर्मला–अहीरिन दूध न दे गई थी?
रुक्मिणी–कहती थी, पिछले पैसे दे दो, तो दूं। तुम्हारा जी अब कैसा है?
निर्मला–मुझे कुछ नहीं हुआ है? कल देह गरम हो गई थीं।
रुक्मिणी–डॉक्टर साहब का बुरा हाल है?
निर्मला ने घबराकर पूछा–क्या हुआ, क्या? कुशल से है न?
रुक्मिणी–कुशल से हैं कि लाश उठाने की तैयारी हो रही है! कोई कहता है, जहर खा लिया था, कोई कहता है, दिल का चलना बन्द हो गया था। भगवान् जाने क्या हुआ था।
निर्मला ने एक ठण्डी सांस ली और रुंधे हुए कंठ से बोली–हाय भगवान्! सुधा की क्या गति होगी! कैसे जियेगी?
यह कहते-कहते वह रो पड़ी और बड़ी देर तक सिसकती रही। तब बड़ी मुश्किल से उठकर सुधा के पास जाने को तैयार हुई पांव थर-थर कांप रहे थे, दीवार थामे खड़ी थी, पर जी न मानता था। न जाने सुधा ने यहां से जाकर पति से क्या कहा? मैंने तो उससे कुछ कहा भी नहीं, न जाने मेरी बातों का वह क्या मतलब समझी? हाय! ऐसे रुपवान् दयालु, ऐसे सुशील प्राणी का यह अन्त! अगर निर्मला को मालूम होता कि उसके क्रोध का यह भीषण परिणाम होगा, तो वह जहर का घूंट पीकर भी उस बात को हंसी में उड़ा देती।
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