उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
उसी समय तोताराम कमरे में आकर खड़े हो गये। मंसाराम ने चटपट आँसू पोछें डाले और सिर झुकाकर खड़ा हो गया। मुंशीजी ने शायद यह पहली बार उसके कमरे में कदम रखा था। मंसाराम का दिल धड़धड़ करने लगा देखें आज क्या आफत आती है। मुंशीजी ने उसे रोते हुए देखा, तो एक क्षण के लिए उनका वात्सल्य घोर निद्रा से चौंक पड़ा। घबराकर बोले-क्यों, रोते क्यों हो बेटा! किसी ने कुछ कहा है।
मंसाराम ने बड़ी मुश्किल से उमड़ते हुए आँसुओं को रोककर कहा–जी नहीं रोता तो नहीं हूँ…
मुंशीजी–तुम्हारी अम्माँ ने तो कुछ नहीं कहा?
मंसा–जी नहीं, वह तो मुझसे बोलती ही नहीं।
मुंशीजी–क्या करूँ बेटा, शादी तो इसलिए की थी कि बच्चों को माँ मिल जायगी लेकिन वह आशा पूरी नहीं हुई। तो क्या बिल्कुल नहीं बोलतीं।
मंसा–जी नहीं, इधर महीनों से नहीं बोलतीं।
मुंशीजी–विचित्र स्वभाव की औरत है, मालूम ही नहीं होता कि क्या चाहती है। मैं जानता कि ऐसा मिजाज होगा तो कभी शादी न करता। रोज एक-न-एक बात लेकर उठ खड़ी होती है। उसी ने मुझसे कहा था कि यह दिन भर जाने कहाँ गायब रहता है। मैं उसके दिल की बात क्या जानता था? समझा, तुम कुसंगत में पकड़कर शायद दिन भर घूमा करते हो। कौन ऐसा पिता है, जिसे अपने प्यारे पुत्र को आवारा फिरते देखकर रंज न हो? इसीलिए मैंने तुम्हें बोर्डिंग हाउस में रखने का निश्चय किया था। बस, और कोई बात नहीं थी, बेटा। मैं तुम्हारा खेलना-कूदना बन्द नहीं करना चाहता था। तुम्हारी यह दशा देखकर मेरे दिल के टुकड़े हुए जाते हैं। कल मुझे मालूम हुआ कि मैं भ्रम में था। तुम शौक से खेलो, सुबह-शाम मैदान में निकल जाया करो। ताजी हवा से तुम्हें लाभ होगा। जिस चीज की जरूरत हो मुझसे कहो; उनसे कहने की जरूरत नहीं। समझ लो कि वह घर में है ही नहीं। तुम्हारी माता छोड़कर चली गयी, तो मैं तो हूँ।
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