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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


बालक का सरल निष्कपट हृदय पितृ-प्रेम से पुलकित हो उठा। मालूम हुआ कि साक्षात् भगवान खड़े हैं। नैराश्य और क्षोभ से विकल होकर उसने मन में अपने पिता को निष्ठुर और न जाने क्या-क्या समझ रखा। विमाता से उसे कोई गिला न था। अब उसे ज्ञात हुआ कि मैंने अपने देवतुल्य पिता के साथ कितना बड़ा अन्याय किया है। पितृ-भक्ति की एक तरंग-सी हृदय में उठी, और वह पिता के चरणों पर सिर रखकर रोने लगा।

मुंशी जी करुणा से विह्वल हो गये। जिस पुत्र को एक क्षण भर आँखों से दूर देखकर उनका हृदय व्यग्र हो उठता था; जिसके शील, बुद्धि और चरित्र का अपने-पराये सभी बखान करते थे, उसी के प्रति उनका हृदय इतना कठोर क्यों हो गया? वह अपने ही प्रिय पुत्र को शत्रु समझने लगे, उसको निर्वासन देने को तैयार हो गये। निर्मला पुत्र और पिता के बीच में दीवार बनकर खड़ी थी। निर्मला को अपनी ओर खींचने के लिए पीछे हटना पड़ता था, और पिता तथा पुत्र में अन्तर बढ़ता जाता था। फलतः आज यह दशा हो गयी है कि अपने अभिन्न पुत्र से उन्हें इतना छल करना पड़ रहा है। आज बहुत सोचने के बाद उन्हें एक ऐसी युक्ति सूझी है, जिससे आशा हो रही है। कि वह निर्मला को बीच से निकालकर अपने दूसरे बाजू को अपनी तरफ खींच लेंगे। उन्होंने उस युक्ति का आरम्भ भी कर दिया है। लेकिन इसमें अभिष्ट सिद्ध होगा या नहीं, इसे कौन जानता है।

जिस दिन से तोताराम ने निर्मला के बहुत मिन्नत-समाजत करने पर भी मंसाराम को बोर्डिंग हाउस में भेजने में निश्चय किया था, उसी दिन से उसने मंसाराम से पढ़ना छोड़ दिया। यहाँ तक की बोलती तक भी न थी। उसे स्वामी की इस अविश्वासपूर्ण तत्परता का कुछ कुछ आभास हो गया। ओफ्फोह! इतना शक्की मिजाज! ईश्वर ही इस घर की लाज रखें। इनके मन में ऐसी-ऐसी दुर्भावनाएँ भरी हुई हैं! मुझे यह इतनी गयी-गुजरी समझते हैं। ये बातें सोच सोचकर वह कई दिन रोती रही। तब उसने सोचना शुरू किया, इन्हें क्यों ऐसा सन्देह हो रहा है? मुझे में ऐसी कौन सी बात है, जो उनकी आँखों में खटकती है। बहुत सोचने पर भी अपने में कोई ऐसी बात नजर न आयी। तो क्या उसका मंसाराम से पढ़ना उससे हँसना-बोलना ही इनके संदेह का कारण है तो फिर मैं पढ़ना छोड़ दूँगी, भूलकर भी मंसाराम से न बोलूँगी-उसकी सूरत न देखूँगी।

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