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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


हम उसी दिन अनाथ हुए जिस दिन अम्माँ जी परलोक सिधारी। जो कुछ कसर रह गयी थी, वह इस विवाह ने पूरी कर दी। मैं तो खुद पहले इनसे विशेष सम्बन्ध न रखता था। अगर, उन्हीं दिनों पिताजी से मेरी शिकायत की होती, तो शायद मुझे इतना दुःख न होता। मैं तो उस अघात के लिए तैयार बैठा था। संसार में क्या मैं मजदूरी भी नहीं कर सकता।? लेकिन बुरे वक्त में इन्होंने चोट की। हिंसक पशु भी आदमी को गाफिल पाकर ही चोट करते हैं। इसीलिए मेरी इतनी आवभगत होती थी, खाना खाने के लिए उठने में जरा भी देर हो जाती थी, तो बुलाव आते थे, जलपान के लिए प्रातः काल ताजा हलुआ बनाया जाता था, बार-बार पूछा जाता था-रुपयों की जरूरत तो नहीं है? इसलिए वह १००/- की घड़ी मँगवायी थी।

मगर क्या इन्हें कोई दूसरी शिकायत न सूझी, जो मुझे आवारा कहा? आखिर उन्होंने मेरी क्या आवारगी देखी? यह कह सकती थीं कि इसका मन पढे़-लिखने में नहीं लगता, एक-न-एक चीज के लिए नित्य रुपये माँगता है। यही एक बात उन्हें क्यों सूझी?

शायद इसलिए कि यही सबसे कठोर आघात है, जो वह सूझ पर कर सकती है। पहली ही बार इन्होंने मुझे पर अग्नि-वाण चला दिया जिससे कहीं शारण नहीं। इसीलिए न कि यह पिता की नजरों से गिर जाये? मुझे बोर्डिग हाउस में रखने का तो एक बहाना था। उद्देश्य यह था कि कि इस दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया जाय। दो चार महीने के बाद खर्च-वर्च देना बन्द कर दिया जाय, फिर चाहे मरे या जिये। अगर मैं जानता कि यह प्रेरणा इसकी ओर से हुई हैं, तो कहीं जगह न कहने पर भी जगह निकाल लेता। नौकरों की कोठरियों में से तो जगह मिल जाती, बरामदे में पड़े रहने के लिए बहुत जगह मिल जाती है। खैर, अब सबरे है। जब स्नेह नहीं रहा, तो केवल पेट भरने के लिए यहाँ पड़े रहना बेहनाई है, यह अब मेरा घर नहीं है। मैं उनका पुत्र हूँ; पर वह मेरे पिता नहीं है। संसार के सारे नाते स्नेह के नाते हैं। जहाँ स्नेह नहीं, वहाँ कुछ नहीं। हाय अम्माँजी! तुम कहाँ हो?

यह सोचकर मंसाराम रोने लगा। ज्यों-ज्यों मातृ स्नेह की पूर्व स्मृतियाँ जागृत होती थीं, उसके आँसू उमड़ते आते थे। वह कोई बार अम्माँ अम्माँ पुकार उठा मानो वह खड़ी सुन रही हैं। मातृ-पिता हीनता के दुःख का आज उसे पहिली बार अनुभव हुआ। वह आत्मभिमानी था, साहसी था; पर अब तक सुख की गोद में लालन-पालन होने के कारण वह इस समय अपने को निराधार समझ रहा था।

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