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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शान्त हो गया। देखते-देखते वहाँ लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियाँ काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने खजाँचन्द की जान ली थी, उन्होंने उसके शव को चिता पर रक्खा। ज्वाला प्रचण्ड हुई। अग्निदेव अपने-मुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे।

पठानों ने खजाँचन्द की सारी जंगम सम्पत्ति लाकर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं एक छोटा सा मकान बनवाया और वीर खजाँचन्द की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्वा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। खजाँचन्द के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मसजिद में मुल्लाओं का मेला लगा, और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये, पर उसका वहाँ पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।

साल भर गुजर गया। सन्ध्या का समय था। श्यामा अपने झोपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था। आकाश पर लालिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शान्ति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की काँपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भर रही हो।

उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोपड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूँक उठा। श्यामा ने चौंककर देखा और चिल्ला उठी—धर्मदास।

धर्मदास ने वही जमीन पर बैठते हुए कहा—हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ। साल भर से मारा–मारा फिर रहा हूँ। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रान्त मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ। पर मौत भी नहीं आती।

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