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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


महेश्वरी के पत्र नियमानुकूल सप्ताह में एक आते रहते थे। उसके पत्र उसी प्रकार प्रेममय और विवरणपूर्ण हुआ करते थे। पत्र भी चार-पांच पृष्ट से कम नहीं होता था। उसमें वह लिखा करती थी कि यदि पत्र लिखने का समय नहीं मिलता तो न सही, उसे तो समय है और वह लिख रही है। उसका यहीं कथन होता था–‘‘आप पढ़ लीजिए, मुझे तो इतने से ही सन्तोष हो जायेगा। मैं तो दिन गिन रही हूं। आप को गये एक सौ साठ दिन हो गये हैं। आपके वहां रहने से सात सौ पचास दिनों में से एक सौ आठ कम हो गये तो पांच सौ नब्बे दिन आपके दर्शनों में शेष हैं। मैं प्रतिदिन प्रातः उस एक अंक में एक दिन की वृद्धि कर देती हूं और शेष दिनों के अंक में एक दिन की कमी। ये दोनों अंक मेरी मेज पर आंखों के सामने चौबीस घण्टे पड़े रहते हैं और मैं घड़ी-घड़ी, पल-पलकर अपने वियोग का यह समय निकाल रही हूं।’’

फिर एक समय आया जब मदन को महेश्वरी को पत्र पढ़ने के लिए भी अवकाश नहीं रहा। इस समय तक डॉक्टर और उसकी पत्नी को उसका लैसली के साथ सम्बन्ध विदित हो गया था।

नीला ने एक दिन, जब मदन अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था, लैसली को बुला लिया। डॉक्टर साहनी भी उस समय वहीं पर था। मां ने अपनी लड़की से पूछा, ‘‘लैसली! मैं तीन-चार रात से देख रही हूं कि तुम अपने कमरे में नहीं सोती?’’

‘‘हां मम्मी! मैं मदन के कमरे में सोती हूं। मुझे ऐसा करते हुए लगभग एक मास हो गया है।’’

‘‘तुम्हारा उससे क्या सम्बन्ध है, जो तुम वहां जाकर सोने लग गई हो?’’

‘‘जो हसबैण्ड और वाइफ का होता है।’’

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