उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘है तो ठीक ही। परन्तु वह तो देश के साथ विश्वासघात होगा।बात तो वही हो जायेगी जो सरकार करने से मना करती है। सरकार चाहती है कि देश को जितना डालर मिल सके, उतना ठीक है। उसको तृतीय पंचवर्षीय योजना की सफलता के लिए डालरों की भारी आवश्यकता है।’’
‘‘पिताजी! यदि सरकार ने मूर्खता से ऐसे प्रतिबन्ध लगाये हैं जो
अस्वाभाविक और स्थिति के अनुसार परिवर्तनीय नहीं हैं, तो इसमें मेरा क्या दोष? ये योजनाएं और अन्य सरकारी काम नागरिकों के कल्याण के लिए हैं अथवा सरकार की अर्थहीन मन की तरंग और इच्छा को पूर्ण करने के लिए। मुझे न्यायोचित कार्य के लिए अमेरिका जाना है और सरकार का नियम इतना शुष्क और कड़ा है कि यदि यह मेरे वैधानिक कार्य करने पर टूटना है तो मुझे चिन्ता नहीं।’’
फकीरचन्द महेश्वरी के मन की कटुता का अनुमान लगाकर मौन हो गया। उसे चुप देख महेश्वरी ने अपने अमेरिका जाने की तैयारी कर ली। सर्वप्रथम पासपोर्ट के लिए आवेदन करना था।
लाला फकीरचन्द ने स्वेच्छा से लड़की को पासपोर्ट तथा वीसा प्राप्त करने में सहायता देनी आरम्भ कर दी। महेश्वरी ने अपनी सहेली से बात की और उसने अपने पिता को लिखा। सरदार विचित्रसिंह ने गुरनाम कौर को लिखा कि यदि उसकी सहेली शिक्षा के लिए अमेरिका जाना चाहे तो वह बंगाल सरकार से न केवल विदेशी मुद्रा प्रचुर मात्रा में ले देगा, प्रत्युत आने-जाने का कुछ खर्चा भी देगा।
गुरनाम कौर यह प्रस्ताव लेकर महेश्वरी के पास गई। प्रस्ताव सुन उसने सिर हिला दिया। उसने मुस्कुराकर कहा, ‘‘गुरुजी महाराज! मैं विदेश में रुपया व्यय करना पाप समझती हूं, परन्तु अपनी परिस्थति में उस पाप को मैं क्षम्य समझती
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