उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
हूं। मैं तो आगे शिक्षा ग्रहण करना नहीं चाहती और अमेरिका से तो कुछ भी सीखना नहीं चाहती। मैं झूठ बोलकर सरकार से रुपया वसूल करना तो और भी भारी अपराध मानती हूं। मैं ऐसा नहीं करूंगी।’’
सरदार विचित्रसिंह को लिख दिया गया और उसने लिखा कि जितना रुपया उनको चाहिए वह लिख दे, प्रबन्ध हो जायेगा।
इस प्रकार रुपये का प्रबन्ध हो जाने पर वह पासपोर्ट प्राप्त करने की प्रतीक्षा करने लगी। वह मदन की दादी को अपने जाने की सूचना देने के लिए गई तो उसने सिर हिलाते हुए उसके औचित्य पर सन्देह प्रकट कर दिया। उसने बताया, ‘‘कोई दुर्घटना नहीं हुई है। वह ठीक-ठाक है। उसकी प्रकृति को मैं जानती हूं। उसका प्रदर्शन उसने अपने विदेश जाने से पूर्व किया भी था। यही इस चुप्पी का कारण है। वह दुर्बलात्मा किसी लड़की के मोहजाल में फंस गया है। इससे वह तुमको भूल गया है। मेरा कहा मानो तो उस पापात्मा का मोह छोड़ कहीं अन्यत्र विवाह कर, अपना जीवन सुखमय करने का यत्न करो।’’
‘‘अम्मा!’’महेश्वरी ने आंखों में आंसू भरते हुए कहा, ‘‘मुझे भी कुछ ऐसा प्रतीक हो रहा है। यद्यपि यह सन्देह मैं अपनी किसी सम्बन्धी के सम्मुख प्रकट नहीं कर सकती। फिर भी मैं समझती हूं कि वे उस मोहजाल में ग्रस्त सुखी नहीं रह सकते। मैं जब इस प्रकार अनुभव करती हूं तो अपना यह भी कर्तव्य मानती हूं कि उनको इस गर्त से निकालने का यत्न करूंगी। मोहजाल के संभ्रम को तोड़ने वाला भी तो उसी जाल की-सी प्रकृति का प्राणी होना चाहिए। एक औरत के मोहजाल को औरत ही तोड़ सकती है। इस कारण मैं जाना चाहती हूं।
‘‘अम्मा! मुझे आशीर्वाद दो कि मैं आपके पोते को सकुशल यहां वापस ले आऊं।’’
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