उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
इन मनोद्गारों को सुन दादी की आंखों से भी आंसू उमड़ आये। उससे भी अधिक जो उसने कदाचित अपने पति की मृत्यु पर बहाये थे। उस समय तो क्रूर भाग्य ने एक प्रिय को अपने अंचल में छिपा लिया था और अब एक स्नेहमयी दैवी शक्ति उसके प्रिय को अज्ञान की अन्धकारमयी अमावस्या से बाहर जाने का वचन दे रही थी। इसने तो उसके अन्तस्तल को ही स्पर्श कर लिया था।
इस समय मदन की दादी को कुछ सन्देह हुआ तो व पूछने लगी, ‘‘परन्तु जहां तक मैं जानती हूं तुम दोनों में घनिष्टता तो उत्पन्न हुई नहीं। फिर किस अधिकार से यह कठिन कार्य कर सकोगी?’’
‘‘जी नहीं, ऐसा कोई सम्बन्ध तो था नहीं। परन्तु इससे भी एक अधिक प्रबल सम्बन्ध है। वह है सेवक का स्वामी से। मैंने उन्हें अपना स्वामी माना है और सेवा के बल पर ही मैं उनको वापस आपकी सेवा में लाने का विचार कर रही हूं।
‘‘महेश बेटी! मैं कभी-कभी अपनी सूझ-बूझ पर सन्देह करने लग जाती हूं। हमारे पड़ौस में एक लेडी डॉक्टर थी। उसका नाम था ज्योत्स्ना बैनर्जी। सात-आठ वर्ष हुए उसका एक प्रोफेसर से विवाह हो गया था। तीन वर्ष हुए उसने अपने पति को तलाक देकर पिछले वर्ष एक दुकानदार से विवाह कर लिया। अब सुन रही हूं कि उसने उसको भी तलाक देने के लिए आवेदन कर दिया है। सुना जा रहा है कि अब वह एक संसद सदस्य से विवाह करना चाहती है। उस दिन वह मुझे देखने के लिए आई थी। मुझे धड़कन की बीमारी हो गई है। वह मुझे देख कर कहने लगी, ‘अम्मा! तुम पुरुष की संगति का अभाव अनुभव कर रही हो। मेरी सम्मति है कि तुम विवाह कर लो।’
‘‘मैंने हंसते हुए कहा, ‘बीवी! मेरी आयु इस समय पचपन वर्ष की है।’
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