उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
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लैसली आई और चली गई। डॉक्टर भी मध्याह्नोत्तर आया और महेश्वरी को बैठा देख विस्मय करता रहा। इच्छा होते हुए भी उसने यह जानने का यत्न नहीं किया कि मदन के पास यह कौन हिन्दुस्तानी लड़की बैठी है। मदन ने परिचय नहीं कराया और डॉक्टर साहनी ने पूछने का साहस नहीं किया। महेश्वरी मध्याह्न के समय लंच के लिए गई थी और पुनः हॉस्पिटल में लौटकर आ गई थी। अस्पताल का सुपररिन्टेंडेंन, डॉक्टर और नर्सो को यह ज्ञात था कि रोगी की बहिन आ गई है और उसकी देखभाल कर रही है। डॉक्टर के जाने के बाद नीला आई। वह अपने पति की भांति संकोच में नहीं रही। उसने सीधे ही महेश्वरी से पूछा, ‘‘मैंने पहले आपको कभी देखा नहीं। आप कहां रहती हैं?’’
महेश्वरी ने अब लुकाव-छिपाव रखना न तो उचित समझा और न सम्भव ही। उसने कह दिया, ‘‘मैं दिल्ली से आई हूं।’’
‘‘दिल्ली से? तुम फकीरचन्द की लड़की हो?’’
‘‘हां, मैंने आपको चौदह वर्ष पूर्व देखा था। मैं भी अपने पिताजी के साथ आपको हवाई जहाज पर चढ़ाने के लिए आई थी।’’
‘‘तब तुम पांच वर्ष की थीं। फ्रॉक ही पहिनती थीं। अब तो तुम सुन्दर निकल आई हो।’’
‘‘हां, लक्ष्मी को मैंने आज प्रातःकाल यहीं पर देखा है। वह तो मुझसे भी अधिक बदल गई है।’’
नीला ने उसका कोई उत्तर न देते हुए, उससे ही पूछ लिया, ‘‘इस दुर्घटना की सूचना किस प्रकार मिल गई तुमको?’’
‘‘मैं तो चिरकाल से इनसे पत्र न आने के कारण, इनसे मिलने के लिए आई थी। यह तो यहां आकर ही विदित हुआ कि इनके साथ यह दुर्घटना हो गई है।’’
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