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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘मैं उसके छोड़ जाने में कोई हानि नहीं समझती। उसकी इस शारीरिक स्थिति में वह कोई प्रलोभन का कारण भी नहीं है। छोड़ जाता है तो छोड़ जाय। मैं अब मदन की पत्नी बने रहने में कोई लाभ नहीं देखती।’’

पति और पत्नी लड़की के विचार सुन स्तब्ध रह गये। वे उसका भाव देखते रहे। लैसली ने फिर कहा, ‘‘मैंने बहुत विचार किया है और मैं इस परिणाम पर पहुंची हूं कि जीनव-भर यह बोझ ढोने का सामर्थ्थ मुझ में नहीं है। मैं स्वयं को इस अपंग व्यक्ति के साथ बांधकर रखने के लिए तैयार नहीं हूं।’’

‘‘और इस बच्चे का क्या होगा?’’

‘‘होगा क्या? यह पैदा होगा। तदनन्तर यदि इसका पिता चाहेगा तो उसको दे दूगी अन्यथा किसी लावारिस बच्चों के सदन में पालने के लिए भेज दूंगी।’’

नीला अपनी लड़की को इतनी क्रूर नहीं समझती थी। वह लड़की को कैसे कहती कि लंगड़े पति के साथ आजीवन बंधी रहे। तीनों एक दूसरे का मुख देखते रहे। लैसली के मुख पर उच्छृंखलता का भाव था। नीला के मुख पर मदन के लिए दया और साहनी के मुख पर विस्मय था। आखिर साहनी ने पूछा, ‘‘महेश्वरी से कैसा बर्ताव करना चाहिये?’’

जैसे किसी मित्र की लड़की के साथ किया जाता है।’’

‘‘वह भी यदि मदन की इस अवस्था में और मदन के तुम्हारे साथ विवाह कर लेने पर, अब उसको अपने साथ ले जाने के लिए तैयार न हो तो?’’

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