उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
मदन को गुरनाम कौर की बात स्मरण हो आई। उसने कहा, ‘‘हमारी मायथौलोजी में एक कृष्ण नाम के महापुरुष का उल्लेख आता है। वह कह गया है कि जो कहता है कि मैं जानता हूं, वह वास्तव में कुछ नहीं जानता। और जो कहता है कि वह कुछ नहीं जानता, वह कुछ तो जानता ही है।’’
यह सुन लैसली हंस पड़ी। उसने कहा, ‘‘मैं भी कुछ ऐसा ही अनुभव कर रही हूं। मैं जब मन में विचार करती हूं कि आपको जान गई हूं तो कदाचित् भूल करती हूं। और जब मैं यह समझती हूं कि मैं आपके विषय में कुछ नहीं जानती तो यह सोचती हूं कि इतना तो जान ही रही हूं।’’
लैसली की बात सुनकर मदन को भी हंसी आ गई। इस प्रकार दोनों की घनिष्ठता प्रगाढ़ होती जा रही थी।
मंगलवार का दिन था और लैसली सोचती थी कि यदि मदन को स्वीकार हो तो वह मंगलवार के दिन क्लब जा सकती है। इसी उद्देश्य से उसने मदन से पूछा था।
मदन ने उत्तर में कहा, ‘‘परन्तु वहां तो लड़कियां ही जा सकती हैं न? और मैं दुर्भाग्य से लडका हूं।’’
‘‘नहीं, मंगलवार का दिन रिसेप्शन-डे कहलाता है। उस दिन संयुक्त कार्यक्रम की स्वीकृति है।’’
‘‘तब तो मैं तुम्हारा धन्यवाद करूंगा। कम-से-कम कुछ नित्य से विलक्षण बात तो होगी ही।’’
‘‘तो तैयार हो जाइए।’’
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