उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
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‘‘मदन!’’ लैसली ने उसके कमरे से बाहर खड़े होकर आवाज दी।
‘‘यस डियर!’’
‘‘तुम मेरे साथ क्लब चलना पसन्द करोगे क्या?’’
मदन को डॉक्टर के घर में आए पांच दिन हो गए थे। इन दिनों प्रथम तीन दिन तक तो लैसली की रात्रि में ड्यूटी रही थी और मध्याह्नोत्तर जब उसको अवकाश होता था तो उस समय मदन प्रायः नगर अथवा समीप के अन्य दर्शनीय स्थलों को देखने जा चुका होता था। कॉलेज अभी खुला नहीं था। लैसली के साथ रहने का प्रथम अवसर उसको रविवार को ही मिला था। उस दिन वह उसके साथ बाजारों अथवा पार्को में घूमता रहा था। लैसली से उसकी कई विषय पर चर्चा होती रहती थी। पिछले दिन लैसली ने उसकी मंगेतर महेश्वरी के विषय में जानने की इच्छा प्रकट की थी। उसने पूछा था–‘मदन! तुम्हारी मंगेतर कितनी सुन्दर है? उसका स्वभाव कैसा है? क्या वह बहुत समझदार और नेक है?’’
इस पकार के कई प्रश्न लैसली ने किए थे। मदन का एक ही उत्तर था, ‘‘मेरा उससे बहुत कम समय का सम्पर्क है, इस कारण मैं उसके विषय में कोई लम्बी-चौड़ी बात नहीं बता सकता।’’
‘‘तो फिर तुमने उससे सगाई क्यों कर ली?’’
‘‘इसलिए कि मेरे बाबा और अम्मा को वह पसन्द आ गई थी।’’
‘‘आप तो बहुत ही पिछड़े हुए व्यक्ति हैं। विवाह के विषय में भी बड़ों का हस्तक्षेप करना टाल नहीं सकते?’’
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