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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


अमृतराय ने दाननाथ को गले लगाते हुए कहा–ऐसा भी कभी हुआ है कि तुमने मुझे देखकर कहा हो, आजकल तुम खूब हरे हो। तुम्हें तो मैं हमेशा ही बीमार नजर आता हूं, हर बार पहले से अधिक। जीता कैसे हूं, यह भगवान ही जानें!

दाननाथ हंस पड़े; पर अमृतराय को हंसी न आई। गम्भीर स्वर में बोले–सारी दुनिया के सिद्धान्त चाटे बैठे हो, अभी स्वास्थ्य-रक्षा पर बोलना पड़े तो इस विषय के पण्डितों को भी लज्जित कर दोगे, पर इतना नहीं हो सकता कि शाम को सैर ही कर लिया करो।

दाननाथ ने मुस्कराते हुए कहा–मेरे पास टमटम होती तो सारे दिन दौड़ता। घोड़ा भी याद करता कि किसी से पाला पड़ा था। पैदल मुझे सैर में मजा नहीं आता। अब निकालो, कुछ सिगार-विगार निकालोगे, या बूढ़ों की तरह कोसते ही जाओगे। तुम्हें संसार में बड़े-बड़े काम करने हैं, तुम देह की रक्षा करो। तुम्हीं ने तो संसार का उद्धार करने का ठेका लिया है। यहां क्या, एक दिन चुपके से चल देना है। चाहता तो मैं भी यही हूं कि संयम-नियम के साथ रहूं; लेकिन जब निभ जाए तब तो? कितनी बार दंड, मुग्दर, डम्बेल शुरू किया; पर कभी निभा सकता? आखिर समझ गया कि स्वास्थ्य मेरे लिए है ही नहीं। फिर उसके लिए क्यों व्यर्थ में जान दूं। इतना जानता हूं कि रोगियों की आयु लम्बी होती है। तुम साल में एक बार मलेरिया के दिनों में मरकर जीते हो। तुम्हें ज्वर आता है तो सीधा १०६ अंश तक जा पहुंचता है। मुझे एक तो ज्वर आता ही नहीं और आता भी है तो १०१ अंश से आगे बढ़ने का साहस नहीं करता। देख लेना तुम मुझसे पहले चलोगे! हालाकि मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि तुम्हारी गोद में मेरे प्राण निकलें! अगर तुम्हारे सामने मरूं तो मेरी यादगार जरूर बनवाना। तुम्हारी यादगार बनाने वाले तो बहुत निकल आएंगे, लेकिन मेरी दौड़ तो तुम्हीं तक है। मेरा महत्त्व और कौन जानता है?

इन उच्छृंखल शब्दों में विनोद के साथ कितनी आत्मीयता, कितना प्रगाढ़ स्नेह भरा हुआ था कि दोनों ही मित्रों की आंखें सजल हो गईं। दाननाथ तो मुस्करा पड़े; लेकिन अमृतराय का मुख गम्भीर हो गया। दाननाथ तो हंसमुख थे, पर विनोद की शैली किसी मर्मान्तक वेदना का पता दे रही थी! अमृतराय न पूछा–लाला बदरीप्रसाद के यहां से कोई सन्देशा आया? तुम तो इधर कई दिन से दिखायी ही नहीं दिए। मैं समझ गया कि वहां अपना रंग जमा रहे होंगे, इसीलिए गया भी नहीं।

अमृतराय ने यह प्रसंग छोड़कर दाननाथ पर बड़ा एहसान किया, नहीं तो वह यहां घंटों गप-शप करते रहने पर भी यह प्रश्न मुख पर न ला सकते थे। अब भी उनके मुख के भाव से कुछ ऐसा जान पड़ा कि यह प्रसंग व्यर्थ छेड़ा गया। बड़े संकोच के साथ बोले–हां, सन्देशा तो आया है, पर मैंने जवाब दे दिया।

अमृतराय ने घबड़ाकर पूछा–क्या जवाब दे दिया?

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