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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दाननाथ–‘जो मेरे जी में आया!’

‘आखिर सुनूं तो, तुम्हारे जी में क्या आया?’

‘यही कि, मुझे स्वीकार नहीं है।’

‘यह क्यों भाई? क्या प्रेमा तुम्हारे योग्य नहीं हैं।’

‘नहीं, यह बात नहीं। मैं खुद उनके योग्य नहीं हूं।’

अमृतराय ने तीव्र स्वर में कहा–उसके योग्य नहीं हो; तो इतने दिनों से उसके नाम पर तपस्या क्यों कर रहे हो मैं बीच में न आ पड़ता, तो क्यों इसमें कोई सन्देह है कि उससे तुम्हारा विवाह हो गया होता! मैंने देखा कि तुम इस शोक में अपना जीवन नष्ट किए डालते हो। तुमने कितने ही पैगाम लौटा दिए, यहां तक कि मुझे इसके सिवाय कोई उपाय न रहा कि मैं तुम्हारे रास्ते से हट जाऊं। मुझे भय हुआ कि उसके वियोग में घुलते-घुलते कहीं तुम एक दिन मुझे अकेला छोड़कर बचता धन्धा न करो। मैंने अपने हृदय को टटोला तो मुझे जान पड़ा–मैं यह आघात सह सकता हूं; पर तुम नहीं सक सकते। भले आदमी, तुम्हारे लिए तो मैं अपने ऊपर इतना बड़ा जब्र किया और अब तुम कन्नियां काट रहे हो। अब अगर तुमने कोई मीन-मेख निकाली तो मैं मार ही डालूंगा, समझ लेना, चुपके से मेरी टमटम पर बैठो और लाला बदरीप्रसाद के पास जाकर मामला खरा कर आओ।

दाननाथ ने बिजली का बटन दबाते हुए कहा–तुम इस प्रकार काम को जितना आसान समझते हो, उतना आसान नहीं है। कम-से-कम मेरे लिए।

अमृतराय ने मित्र के मुख को स्नेह में डूबी हुई आंखों से देखकर कहा–यह जानता हूं। बेशक आसान नहीं है। मैं ही पहले बाधक था। मैं ही अब भी बाधक हूं; लेकिन तुम जानते हो मैंने एक बार जो बात ठान ली, वह ठान ली। अब ब्रह्मा भी उतर आएं तो मुझे विचलित नहीं कर सकते। पण्डित अमरनाथ की युक्ति मेरे मन में बैठ गयी। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि प्रेमा ही नहीं, किसी क्वांरी से विवाह करने का अधिकार मुझे नहीं है। ईश्वर ने वह अधिकार मेरे हाथ से छीन लिया। प्रेमा जैसी दुर्लभ वस्तु को पाकर छोड़ देने का मुझे कितना दुःख हो रहा है, यह मैं ही जानता हूं और कुछ-कुछ तुम भी जानते हो, लेकिन इस शोक में चाहे मेरे प्राण ही निकल जाएं, जिसकी कोई सम्भावना नहीं है, तो भी मैं अपने विधुर जीवन में प्रेमा को प्रवेश न करने दूंगा। अब तो तुम मेरी ओर से निश्चिन्त हो गए।

दाननाथ अब भी निश्चिन्त नहीं हुए थे। उसके मन में, एक नहीं सैकड़ों बाधाएं आ रही थीं। इस भय से कि यह नई शंका सुनकर अमृतराय हंस न पड़ें, वह स्वयं हंसकर बोले–मुझ जैसे लफंगे को प्रेमा स्वीकार करेगी, यह भी ध्यान में आया है जनाब के?

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