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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


अमृतराय ने पत्र को लिफाफे में बन्द करके वृद्ध को दिया। बदरीप्रसाद का नाम सुनते ही बूढ़ा मुस्कराया और खत लेकर चला गया।

तब अमृतराय ने हंसकर कहा–संखिया न हो, तो मैं दे दूंगा। एक बार किसी दवा में डालने के लिए मंगवाई थी।

दाननाथ ने बिगड़कर कहा–मैं तुम्हारा सिर फोड़ दूंगा। तुम हमेशा मुझ पर हुकूमत करते आए हो, और अब भी करना चाहते हो; लेकिन अब मुझ पर तुम्हारा कोई दांव न चलेगा। आखिर मैं भी तो कोई चीज हूं।

अमृतराय अपनी हंसी को न रोक सके।

लाला बदरीप्रसाद को दाननाथ का पत्र क्या मिला, आघात के साथ ही अपमान भी मिला। वह अमृतराय की लिखावट पहचानते थे। उस पत्र की सारी नम्रता, विनय और प्रण, उस लिपि में लोप हो गए। मारे क्रोध के उनका मस्तिष्क खौल उठा। दाननाथ के क्या हाथ टूट गए, जो उसने अमृतराय से पत्र लिखाया। क्या उसके पांव में मेंहदी लगी थी, जो यहां तक न आ सकता था? और यह अमृतराय भी कितना निर्लज्ज है। वह ऐसा पत्र कैसे लिख सका! जरा भी शर्म नहीं आई।

अब तक लाला बदरीप्रसाद को कुछ-कुछ आशा थी कि शायद अमृतराय की आवेश में की हुई प्रतिज्ञा कुछ शिथिल पड़ जाए। लिखावट देखकर पहले वह यही समझे थे कि अमृतराय ने क्षमा मांगी होगी; लेकिन पत्र पढ़ा तो आशा की वह पतली-सी डोरी भी टूट गई। दाननाथ का पत्र पाकर शायद वह अमृतराय को बुलाकर दिखाते और प्रतिस्पर्धा को जगाकर उन्हें पंजे में लाते। इस आशा की धज्जी भी उड़ गई। इस जले पर नमक छिड़क दिया अमृतराय की लिखावट ने। क्रोध से कांपते हुए हाथों से दाननाथ को यह पत्र लिखा–

लाला दाननाथ जी, आपने अमृतराय से यह पत्र लिखाकर मेरा और प्रेमा का जितना आदर किया है, उसका आप अनुमान नहीं कर सकते। उचित तो यही था कि मैं उसे फाड़कर फेंक देता और आपको कोई जवाब न देता, लेकिन।

यहीं तक लिख पाए थे कि देवकी ने आकर बड़ी उत्सुकता से पूछा–क्या लिखा है बाबू अमृतराय ने?

बदरीप्रसाद ने कागज की ओर सिर झुकाए हुए कहा–अमृतराय का कोई खत नहीं आया।

देवकी–चलो, कोई खत कैसे नहीं आया! मैंने कोठे पर से देखा उनका आदमी एक चिट्ठी लिए लपका आ रहा था।

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