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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


बदरी–हां, आदमी तो उन्हीं का था; पर खत दाननाथ का था। उसी का जवाब लिख रहा हूं। महाशय ने अमृतराय से खत लिखाया है और नीचे अपने दस्तखत कर दिए हैं। अपने हाथ से लिखते शर्म आती थी। बेहूदा, शोहदा...

देवकी–खत में था क्या?

बदरी०–यह पड़ा तो है, देख क्यों नहीं लेतीं?

देवकी ने खत पढ़कर कहा–तो इसमें इतना बिगड़ने की कौन सी बात है? जरा देखूं, सरकार ने इसका क्या जवाब लिखा है!

बदरी०–तो देखो। अभी तो शुरू किया है। ऐसी खबर लूंगा कि बच्चा सारा शोहदापन भूल जाए।

देवकी ने बदरीप्रसाद का पत्र पढ़ा और फाड़कर फेंक दिया। बदरीप्रसाद ने कड़ककर पूछा–फाड़ क्यों दिया। तुम कौन होती हो मेरा खत फाड़नेवाली?

देवकी–तुम कौन होते हो ऐसा खत लिखनेवाले? अमृतराय को खोकर क्या अभी सन्तोष नहीं हुआ, जो दानू को भी खो देने की फिक्र करने लगे? तुम्हारे खत का नतीजा यही होगा कि दानू तुम्हें अपनी सूरत कभी न दिखाएगा। जिन्दगी तो मेरी लड़की की खराब होगी, तुम्हारा क्या बिगड़ेगा?

बदरी०–हां और क्या, लड़की तो तुम्हारी है, मेरी तो कोई होती ही नहीं!

देवकी०–आपकी कोई होती, तो उसे कूएं में ढकेलने को यों न तैयार हो जाते।  यहां दूसरा कौन लड़का है प्रेमा के योग्य, जरा सुनूं!

बदरी०–दुनिया योग्य वरों से खाली नहीं, एक-से-एक पड़े हुए हैं।

देवकी–पास के दो-तीन शहरों में तो कोई दीखता नहीं। हां, बाहर की मैं नहीं कहती। सत्तू बांधकर खोजने निकलोगे तो मालूम होगा। बरसों दौड़ते गुजर जाएंगे फिर बे-जाने-पहचाने घर लड़की कौन ब्याहेगा और प्रेमा क्यों मानने लगी?

बदरी०–उसने अपने हाथ से क्यों खत नहीं लिखा? मेरा तो यही कहना है। क्या उसे इतना भी मालूम नहीं कि इसमें मेरा कितना अनादर हुआ है? सारी परीक्षाएं तो पास किए बैठा है। डॉक्टर भी होने जा रहा है क्या उसे इतना भी नहीं मालूम? स्पष्ट बात है। दोनों मिलकर मेरा अपमान करना चाहते हैं।

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