लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

154 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द की चार प्रसिद्ध कहानियाँ


कुँवर साहब का हृदय कांप उठा, तुरन्त ध्यान आया, शिवदास तो नहीं है। पूछा, ‘इनका नाम शिवदास तो नहीं था।’ उस मनुष्य ने विस्मय से देख कर कहा, ‘हाँ यही नाम था। क्या आपसे जान-पहचान थी?’

कुँवर–हाँ, हम और यह बहुत दिनों तक बरहल में साथ-साथ खेले थे। आज शाम को वह हमसे बैंक में मिले थे। यदि उन्होंने मुझसे तनिक भी चर्चा की होती, तो मैं यथाशक्ति उनकी सहायता करता–शोक!

उस मनुष्य ने अब ध्यानपूर्वक कुँवर साहब को देखा, और जाकर स्त्रियों से कहा, ‘चुप हो जाओ, बरहल के महाराज आये हैं।’ इतना सुनते ही शिवदास की माता जोर-जोर से सिर पटकती और रोती हुई आकर कुँवर साहब के पैरों पर गिर पड़ी। उसके मुख से केवल ये शब्द निकले–‘बेटा, बचपन से जिसे तुम भैया कहा करते थे …और गला फँस गया।

कुँवर महाशय की आँखों से भी अश्रुपात हो रहा था। शिवदास की मूर्ति उनके सामने खड़ी यह कहती हुई दीख पड़ती थी, तुमने मित्र होकर मेरे प्राण लिए!

भोर हो गया, परन्तु कुँवर साहब को नींद न आयी। जब से वह गोमती तीर से लौटे थे, उनके चित्त पर एक वैराग्य-सा छाया हुआ था। वह कारुणिक दृश्य, उनके स्वार्थपूर्ण तर्कों को छिन्न-भिन्न किये देता था। सावित्री के विरोध, लल्ला के निराशायुक्त हठ और माता के क्रुद्ध शब्दों का उन्हें लेशमात्र भी भय न था। सावित्री कुढ़ेगी, कुढ़े। लल्ला को भी संग्राम के क्षेत्र में कूदना पड़ेगा, कोई चिंता नहीं! माता प्राण देने पर तत्पर होगी, क्या हर्ज है। मैं अपनी स्त्री-पुत्र तथा हितू-मित्रादि के लिए सहस्रों परिवारों की हत्या न करूँगा। हाय! शिवदास को जीवित रखने के लिए मैं ऐसी कितनी रियासतें छोड़ सकता हूँ। सावित्री को भूखों मरना पड़े, लल्ला को मजदूरी करनी पड़े, मुझे द्वार-द्वार भीख माँगनी पड़े, तब भी दूसरों का गला न दबाऊँगा। अब विलम्ब का अवसर नहीं है, न जाने आगे यह दिवाला और क्या-क्या विपत्तियाँ खड़ी करे। मुझे इतना आगा-पीछा क्यों हो रहा है? यह केवल आत्म-निर्बलता है। वरना यह कोई ऐसा बड़ा काम नहीं, जो किसी ने न किया हो। आये दिन लोग रुपये दान-पुण्य करते हैं। मुझे अपने कर्तव्य का ज्ञान है। उससे क्यों मुँह मोडूँ? जो कुछ हो, चाहे जो सिर पर पड़े, इसकी क्या चिन्ता? घंटी बजायी। एक क्षण में अरदली आँखें मलता हुआ आया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book