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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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कुँवर साहब बोले–अभी जेकब साहब बारिस्टर के पास जाकर मेरा सलाम दो। जग गये होंगे। इतना कहना जरूरी काम है। नहीं, यह पत्र लेते जाओ। मोटर तैयार करा लो।

मिस्टर जेकब ने कुँवर साहब को बहुत समझाया कि आप इस दलदल में न फँसें, नहीं तो निकलना कठिन होगा। मालूम नहीं, अभी कितनी ऐसी रकमें हैं, जिनका आपको पता नहीं है, परन्तु चित्त में दृढ़ हो जानेवाला निश्चय चूने का फर्श है, जिसको आपत्ति के थपेड़े और भी पुष्ट कर देते हैं। कुँवर साहब अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। दूसरे दिन समाचार-पत्रों में छपवा दिया कि मृतक महारानी पर जितना कर्ज है वह हम सकारते हैं और नियत समय के भीतर चुका देंगे।

इस विज्ञापन के छपते ही लखनऊ में खलबली मच गयी। बुद्धिमानों की सम्मति में यह कुँवर महाशय की नितान्त भूल थी, और जो लोग कानून से अनभिज्ञ थे, उन्होंने सोचा कि इसमें अवश्य कोई भेद है। ऐसे बहुत कम मनुष्य थे, जिन्हें कुँवर साहब की नीयत की सचाई पर विश्वास आया हो परन्तु कुँवर साहब का बखान चाहे न हुआ हो, आशीर्वाद की कमी न थी। बैंक के हजारों गरीब लेनदार सच्चे हृदय से उन्हें आशीर्वाद दे रहे थे।

एक सप्ताह तक कुँवर साहब को सिर उठाने का अवकाश न मिला। मिस्टर जेकब का विचार सत्य हुआ। देना प्रतिदिन बढ़ता जाता था। कितने नोट ऐसे मिले, जिनका उन्हें कुछ भी पता न था। जौहरियों और अन्य बड़े-बड़े दूकानदारों का लेना भी कम न था–अनुमान तेरह-चौदह लाख का था। मीजान बीस लाख तक जा पहुँचा। कुँवर साहब घबराये। शंका हुई, ऐसा न हो कि उन्हें भाइयों का गुजारा भी बन्द करना पड़े, जिसका उन्हें कोई अधिकर नहीं था। यहाँ तक कि सातवें दिन उन्होंने कई साहूकारों को बुरा-भला कहकर सामने से दूर किया। जहाँ ब्याज दर अधिक थी उसे कम कराया और जिन रकमों की मीयाद बीत चुकी थी, उन्हें नकार दिया।

उन्हें साहूकारों की कठोरता पर क्रोध आता था। उनके विचार में महाजनों को डूबते धन का एक भाग पा कर ही सन्तोष कर लेना चाहिए था। इतनी खींचातानी करने पर भी कुल देना उन्नीस लाख से कम न हुआ।

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