सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
श्रद्धा– भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी? लोग भाँति-भाँति की मनमानी कल्पनाएँ करेंगे। मान लिया तुमने इस्तीफा ही दे दिया तो यह क्या मालूम है कि जिनके हाथों में रियासत जायेगी वे उसका सदुपयोग करेंगे। अब तो तुम्हारे लोक और परलोक की भलाई इसी में है कि शेष जीवन भगवत भजन में काटो, तीर्था-यात्रा करो साधु-सन्तों की सेवा करो। सम्भव है कि कोई ऐसे महात्मा मिल जायें जिनके उपदेश से तुम्हारे चित्त को शान्ति हो। भगवान ने तुम्हें धन दिया है। उससे अच्छे काम करो। अनाथों और विधवाओं को पालो, धर्मशालाएँ बनवाओ, तालाब और कुएँ खुदवाओ, भक्ति को, छोड़ कर ज्ञान पर चलो। भक्ति का मार्ग सीधा है, लेकिन काँटों से भरा हुआ है। ज्ञान का मार्ग टेढ़ा है, लेकिन साफ है।
श्रद्धा का ज्ञानोपदेश अभी समाप्त न होने पाया था कि एक महरी ने आ कर कहा– बहूजी, वह डिपटियाइन आयी हैं, जो पहले यहीं रहती थीं। यहीं लिवा लाऊँ?
श्रद्धा– शीलमणि तो नहीं है?
महरी– हाँ-हाँ वही है साँवली! पहले तो गहने से लदी रहती थीं, आज तो एक मुँदरी भी नहीं है। बड़े आदमियों का मन गहने से भी फिर जाता है।
श्रद्धा– हाँ, यही लिवा लाओ।
एक क्षण में शीलमणि आ कर खड़ी हो गयीं। केवल एक उजली साड़ी पहने हुई थीं। गहनों का तो कहना ही क्या, अधरों पर पान की लाली भी न थी। श्रद्धा उठकर उनसे गले मिली और पूछा– सीतापुर से कब आयीं?
शीलमणि– आज ही आयी हूँ, इसीलिए आयी हूँ कि लाला ज्ञानशंकर से दो-दो बातें करूँ। जब से बेचारी विद्या के विष खाकर जान देने का हाल सुना है, कलेजे में एक आग-सी सुलग रही है। यह सब उसकी बहिन की करामात है जो रानी बनी फिरती है। उसी ने विष दिया होगा।
शीलमणि ने गायत्री की ओर देखा न था और देखा भी हो तो पहचानती न थीं। श्रद्धा ने दाँतों तले जीभ दबायी और छाती पर हाथ रख कर आँखों से गायत्री को इशारा किया। शीलमणि ने चौंक कर बायीं तरफ देखा तो एक स्त्री सिर झुकाये बैठी हुई थी। उसकी प्रतिभा, सौन्दर्य और वस्त्राभूषण देखकर समझ गई कि गायत्री यही है। उसकी छाती धक से हो गई, लेकिन उसके मुख से ऐसी बातें निकल गयी थीं कि जिनको फेरना या सँभालना मुश्किल था। वह जलता हुआ ग्रास मुँह में रख चुकी थी और उसे निगलने के सिवा दूसरा उपाय न था। यद्यपि उसका क्रोध न्याय-संगत था, पर शायद गायत्री के मुँह पर वह ऐसे कटु शब्द मुँह से न निकाल सकती। लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था इसलिए उसके क्रोध ने हेकड़ी का रूप धारण किया, लज्जित होने के बदले और उद्दंड हो गई। गायत्री की ओर मुँह करके बोली– अच्छा, रानी साहिबा तो यहीं विराजमान हैं। मैंने आपके विषय में जो कुछ कहा है वह आपको अवश्य अप्रिय लगा होगा, लेकिन उसके लिए मैं आपसे क्षमा नहीं माँग सकती। यही बातें मैं आपसे मुँह पर कह सकती थी और एक मैं क्या सारा संसार यही कह रहा है। मुँह से चाहे कोई न कहे, किन्तु सब के मन में यही बात है। लाला ज्ञानशंकर से जिसे एक बार भी पाला पड़ चुका है, वह उसे अग्राह्य नहीं समझ सकता। मेरे बाबू जी इनके साथ के पढ़े हुए हैं और इन्हें खूब समझते हैं।
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