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सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


जागे.–  न भर– पेट खायँगे, आधे ही पेट सही। बदनामी तो न होगी? चाचा से लड़ाई थी। लड़कों ने हमारा क्या बिगाड़ा है?

रामे.– वह चुडैल तो अभी जीती है न?

जागेश्वर चला आया। उसके मन में कई बार यह बात आयी थी कि चाची को कुछ सहायता दिया करूँ, पर उनकी जली– कटी बातों से डरता था। आज से उसने एक नया ढंग निकाला है। लड़कों को खेलते देखता तो बुला लेता, कुछ खाने को दे देता। मजूरों को दोपहर छुट्टी मिलती है। अब वह अवकाश के समय काम करके मजदूरी के पैसे कुछ ज्यादा पा जाता। घर चलते समय खाने की कोई न कोई चीज लेता आता और अपने घरवालों की आँख बचा कर उन अनाथों को दे देता। धीरे– धीरे लड़के उससे हिल– मिल गये कि उसे देखते ही भैया– भैया’ कह कर दौड़ते दिन भर उसकी राह देखा करते। पहले माता डरती थी कि कहीं मेरे लड़कों को बहला कर ये महाशय पुरानी अदावत तो नहीं निकालना चाहते हैं। वह लड़कों को जागेश्वर के पास जाने और उनसे कुछ ले कर खाने से रोकती; पर लड़के शत्रु और मित्र को बूढ़ों से ज्यादा पहचानते हैं। लड़के माँ के मना करने की परवा न करते, यहाँ तक कि शनै:– शनै: माता को भी जागेश्वर की सहृदयता पर विश्वस आ गया।

एक दिन रामेश्वर ने बेटे से कहा– तुम्हारे पास रुपये बढ़ गये हैं, तो चार पैसे जमा क्यों नहीं करते। लुटाते क्यों हो?

जागे.– मैं तो एक– एक कौड़ी की किफायत करता हूँ?

रामे.– जिन्हें अपना समझ रहे हो, वे एक दिन तुम्हारे शत्रु होंगे।

जागे.– आदमी का धर्म भी तो कोई चीज है! पुराने बैर पर एक परिवार को भेंट नहीं कर सकता। मेरा बिगड़ता ही क्या है, यही न रोज घंटे– दो– घंटे और मेहनत करनी पड़ती है।

रामेश्वर ने मुँह फेर लिया। जागेश्वर घर में गया तो उसकी स्त्री ने कहा– अपने मन की ही करते हो, चाहे कोई कितना ही समझाये। पहले घर में आदमी दिया जलाता है।

जागे.– लेकिन यह तो उचित नहीं कि अपने घर में दिया कि जगह मोमबत्तियाँ जलाये और मस्जिद को अँधेरा ही छोड़ दें।

स्त्री– मैं तुम्हारे साथ क्या पड़ी, मानों कुएँ में गिर पड़ी। कौन सुख देते हो? गहने उतार लिये, अब साँस भी नहीं लेते।

जागे.– मुझे तुम्हारे गहनों से भाइयों की जान ज्यादा प्यारी है।

स्त्री ने मुँह फेर लिया और बोली– वैरी की संतान कभी अपनी नहीं होती।

जागेश्वर ने बाहर जाते हुए उत्तर दिया– वैर का अंत वैरी के जीवन के साथ हो जाता है।

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