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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है

११

दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थी। मैं इन पंडितजी को कितना भला आदमी समझती थी। पर अब मुझे मालूम हुआ कि यह भी रंगे हुए सियार हैं। अपने घर के सिवा अब मेरा कोई ठिकाना नहीं है। मुझे दूसरों की चिरौरी करने की जरूरत ही क्या? क्या मेरा कोई घर नहीं था? क्या मैं इनके घर जन्म काटने आई थी। दो-चार दिन में जब उनका क्रोध शांत हो जाता, आप ही चली जाती। ओह! नारायण, क्रोध में बुद्धि कैसी भ्रष्ट हो जाती है। मुझे इनके घर को भूलकर भी न आना चाहिए था, मैंने अपने पांव में आप की कुल्हाड़ी मारी। वह अपने मन में न जाने क्या समझते होंगे?

यह सोचते हुए सुमन आगे चली, पर थोड़ी दूर चलकर उसके विचारों ने फिर पलटा खाया। मैं कहां जा रही हूं? वह अब कदापि मुझे घर में न घुसने देंगे। मैंने कितनी विनती की, पर उन्होंने एक न सुनी। जब केवल रात को कुछ घंटे की देर हो जाने से उन्हें इतना संदेह हो गया, तो अब मुझे चौबीस घंटे हो चुके हैं और मैं शामत की मारी वहीं आई, जहां मुझे न आना चाहिए था। वह तो अब मुझे दूर से ही दुतकार देंगे। यह दुतकार क्यों सहूं? मुझे कहीं रहने का स्थान चाहिए। खाने भर को किसी न किसी तरह कमा लूंगी। कपड़े भी सीऊंगी तो खाने-भर को मिल जाएगा, फिर किसी की धौंस क्यों सहूं? इनके यहां मुझे कौन-सा सुख था? व्यर्थ में एक बेड़ी पैरों में पड़ी हुई थी। और लोक-लाज से मुझे वह रख भी लें, तो उठते-बैठते ताने दिया करेंगे। बस, चलकर एक मकान ठीक कर लूं। भोली क्या मेरे साथ इतना भी सलूक न करेगी? वह मुझे अपने घर बार-बार बुलाती थी, क्या इतनी दया भी न करेगी?

अमोला चली जाऊँ तो कैसा हो? लेकिन वहां पर कौन बैठा हुआ है? अम्मा मर गई। शान्ता है। उसी का निर्वाह होना कठिन है, मुझे कौन पूछने वाला है? मामी जीने न देंगी। छेद-छेदकर मार डालेंगी। चलूं भोली से कहूं, देखूं क्या कहती है? कुछ न हुआ तो गंगा तो कहीं नहीं गई है? यह निश्चय करके सुमन भोली के घर चली। इधर-उधर ताकती थी। कहीं गजाधर न आता हो।

भोली के द्वार पर पहुंचकर सुमन ने सोचा, इसके यहां क्यों जाऊं? किसी पड़ोसिन के घर जाने से काम न चलेगा? इतने में भोली ने उसे देखा और इशारे से ऊपर बुलाया। सुमन ऊपर चली गई।

भोली का कमरा देखकर सुमन की आँखें खुल गईं। एक बार वह पहले भी आई थी, लेकिन नीचे के आंगन से ही लौट गई थी। कमरा फर्श मसनद, चित्रों और शीशे के सामानों से सजा हुआ था। एक छोटी-सी चौकी पर चांदी का पानदान रखा हुआ था दूसरी चौकी पर चांदी की तश्तरी और चांदी का एक गिलास रखा हुआ था। सुमन यह सामान देखकर दंग रह गई।

भोली ने पूछा– आज यह संदूकची लिए इधर कहां से आ रही थीं?

सुमन– यह राम-कहानी फिर कहूंगी; इस समय तुम मेरे ऊपर कृपा करो कि मेरे लिए कहीं अलग एक छोटा-सा मकान ठीक करा दो। मैं उसमें रहना चाहती हूं।

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