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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


भोली ने विस्मित होकर कहा– यह क्यों, शौहर से लड़ाई हो गई है?

सुमन– नहीं, लड़ाई की क्या बात है? अपना जी ही तो है।

भोली– जरा मेरे सामने ताको। हां, चेहरा साफ कह रहा है। क्या बात हुई?

सुमन– सच कहती हूं, कोई बात नहीं है। अगर अपने रहने से किसी को कोई तकलीफ हो तो क्यों रहे?

भोली– अरे, तो मुझसे साफ-साफ कहती क्यों नहीं, किस बात पर बिगड़े हैं?

सुमन– बिगड़ने की कोई बात नहीं। जब बिगड़ ही गए तो क्या रह गया?

भोली– तुम लाख छिपाओ, मैं ताड़ गई सुमन, बुरा न मानों तो कह दूं। मैं जानती थी कि कभी-न-कभी तुमसे खटकेगी जरूर। एक गाड़ी में कहीं अरबी घोड़ी और कहीं लद्दू, टट्टू जुत सकते हैं? तुम्हें तो किसी बड़े घर की रानी बनना चाहिए था। मगर पाले पड़ी एक खूसट के, जो तुम्हारा पैर धोने लायक भी नहीं। तुम्हीं हो कि यों निबाह रही हो, दूसरी होती तो मियां पर लात मारकर कभी की चली गई होती। अगर अल्लाहताला ने तुम्हारी शक्ल-सूरत मुझे दी होती, तो मैंने अब तक सोने की दीवार खड़ी कर ली होती। मगर मालूम नहीं, तुम्हारी तबीयत कैसी है। तुमने शायद अच्छी तालीम नहीं पाई।

सुमन– मैं दो साल तक एक ईसाई लेडी से पढ़ चुकी हूं।

भोली– दो-तीन साल की और कसर रह गई। इतने दिन और पढ़ लेती, तो फिर यह ताक न लगी रहती। मालूम हो जाता कि हमारी जिंदगी का क्या मकसद है, हमें जिंदगी का लुत्फ कैसे उठाना चाहिए। हम कोई भेड़-बकरी तो नहीं कि मां-बाप जिसके गले मढ़ दें, बस उसी की हो रहें। अगर अल्लाह को मंजूर होता कि तुम मुसीबतें झेलो, तो तुम्हें परियों की सूरत क्यों देता? यह बेहूदा रिवाज यहीं के लोगों में है कि औरत को इतना जलील समझते हैं; नहीं तो और सब मुल्कों की औरतें आजाद हैं, अपनी पसंद से शादी करती हैं और उससे रास नहीं आती, तो तलाक दे देती हैं। लेकिन हम सब वही पुरानी लकीर पीटे जा रही हैं।

सुमन ने सोचकर कहा– क्या करूं बहन, लोक-लाज का डर है, नहीं तो आराम से रहना किसे बुरा मालूम होता है?

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