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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


भोली– यह सब उसी जिहालत का नतीजा है। मेरे मां-बाप ने मुझे एक बूढ़े मियां के गले बांध दिया था। उसके यहां दौलत थी और सब तरह का आराम था, लेकिन उसकी सूरत से मुझे नफरत थी। मैंने किसी तरह छह महीने तो काटे, आखिर निकल खड़ी हुई। जिंदगी जैसी नियामत रो-रोकर दिन काटने के लिए नहीं दी गई है। जिंदगी का मजा ही न मिला, तो उससे फायदा ही क्या? पहले मुझे भी डर लगता था कि बड़ी बदनामी होगी, लोग मुझे जलील समझेंगे; लेकिन घर से निकलने की देरी थी, फिर तो मेरा वह रंग जमा कि अच्छे-अच्छे खुशामदें करने लगे। गाना मैंने घर पर ही सीखा था, कुछ और सीख लिया, बस सारे शहर में धूम मच गई। आज यहां कौन रईस, कौन महाजन, कौन मौलवी, कौन पंडित ऐसा है, जो मेरे तलुवे सहलाने में अपनी इज्जत न समझे? मंदिरों में, ठाकुरद्वारों में मेरे मुजरे होते हैं। लोग मिन्नतें करके ले जाते हैं। इसे मैं अपनी बेइज्जती कैसे समझूं? अभी एक आदमी भेज दूं, तो तुम्हारे कृष्ण-मंदिर के महंतजी दौड़े चले आवें। अगर कोई इसे बेइज्जती समझे, तो समझा करे।

सुमन– भला, यह गाना कितने दिन में आ जाएगा।

भोली– तुम्हें छह महीने में आ जाएगा; यहां गाने को कौन पूछता है, धुप्रद और तिल्लाने की जरूरत ही नहीं। बस, चली हुई गजलों की धूम है। दो-चार ठुमरियां और कुछ थिएटर के गाने आ जाएं और बस, फिर तुम्हीं तुम हो। यहां तो अच्छी सूरत और मजेदार बातें चाहिए, सो खुदा ने यह दोनों बातें तुममें कूट-कूटकर भर दी हैं। मैं कसम खाकर कहती हूं सुमन, तुम एक बार इस लोहे की जंजीर को तोड़ दो; फिर देखो, लोग कैसे दीवानों की तरह दौड़ते हैं।

सुमन ने चिंतित भाव से कहा– यही बुरा मालूम होता है कि...

भोली– हां-हां, कहो, यही कहना चाहती हो न कि ऐरे-गैरे सबसे बेशरमी करनी पड़ती है। शुरू में मुझे भी यही झिझक होती थी। मगर बाद को मालूम हुआ कि यह ख्याल-ही-ख्याल है। यहां ऐरे-गैरे के आने की हिम्मत ही नहीं होती। यहां तो सिर्फ रईस लोग आते हैं। बस, उन्हें फंसाए रखना चाहिए। अगर शरीफ है, तब तो तबीयत आप-ही-आप उससे मिल जाती है और बेशरमी का ध्यान भी नहीं होता, लेकिन अगर उससे अपनी तबीयत न मिले, तो उसे बातों में लगाए रहो, जहां तक उसे नोचते-खसोटते बने, नोचो-खसोटो। आखिर को वह परेशान होकर खुद ही चला जाएगा, उसके दूसरे भाई और आ फंसेंगे। फिर पहले-पहल तो झिझक होती ही है। क्या शौहर से नहीं होती? जिस तरह धीरे-धीरे उसके साथ झिझक दूर होती है, उसी तरह यहां होता है।

सुमन ने मुस्कराकर कहा– तुम मेरे लिए एक मकान ठीक कर दो।

भोली ने ताड़ लिया कि मछली चारा कुतरने लगी, अब शिस्त को कड़ा करने की जरूरत है। बोली– तुम्हारे लिए यही घर हाजिर है। आराम से रहो।

सुमन– तुम्हारे साथ न रहूंगी।

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