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अंतिम संदेश

खलील जिब्रान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9549

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विचार प्रधान कहानियों के द्वारा मानवता के संदेश

(5)


और एक दिन सवेरे, जबकि वे बगीचे में घूम रहे थे, द्वार पर एक स्त्री दिखाई पडी़। वह करीमा थी, जिसे अलमुस्तफा ने बचपन में अपनी बहन की भांति प्यार किया था। वह बाहर खड़ी थी, खामोश औऱ अपने हाथों से दरवाजा भी नहीं खट-खटा रही थी, किन्तु केवल इच्छुक और दुःखमय दृष्टि से बगीचे को ताक रही थी।

और अलमुस्तफा ने उसके पलकों पर उमड़ती आकांक्षा देख ली। तेज कदमों से वह दीवार के पास आया और उसके लिए द्वार खोल दिया। वह अन्दर आ गई और इस प्रकार उसका स्वागत हुआ।

तब वह बोली, तुमने क्यों हम सब लोगों का बहिष्कार किया है, जिससे कि हम तुम्हारे चेहरे के प्रकाश में नहीं रह सकते? देखो, इन अनेक वर्षों तक हमने तुम्हें प्यार किया है और तुम्हारे सकुशल लौटने की हमने आकांक्षित प्रतीक्षा की है, सब लोग तुम्हें पुकार रहे हैं, और तुम्हारे साथ बातें करना चाहते हैं, और उनकी दूत बनकर तुम्हारे पास मैं प्रार्थना लेकर आई हूं कि तुम लोगों को अपना दर्शन दो, अपने ज्ञान की बातें उन्हें बताओ, टूटे हुए हृदयों को सान्त्वना दो और हमारी बुद्धिहीनता के लिए हमें शिक्षा दो।”

करीमा की ओर देखते हुए उसने कहा, "मुझे विद्वान् न कहो, जबकि तुम समस्त मनुष्यों को ज्ञानी नहीं समझते। मैं तो एक युवा फल ही तो हूं जोकि अभी भी टहनियों से लटक रहा है और अभी कल ही की तो बात है कि मैं केवल एक पुष्प ही था।

"और अपने में किसी को भी बुद्धिहीन न कहो, क्योंकि सत्य तो यह है कि हम न तो विद्वान् ही हैं और न अज्ञानी। हम तो जीवन के वृक्ष पर हरी पत्तियां हैं और जीवन स्वयं ज्ञान के परे है तथा अज्ञानना से भी निश्चय ही दूर है।”

"और क्या वास्तव में ही मैं तुमसे अलग हूं? क्या तुम नहीं जानते कि दूरी कुछ भी नहीं है, सिवा उसके, जिस पर कल्पना-शक्ति द्वारा आत्मा पुल नहीं बांध पाती और जब आत्मा उस दूरी पर पुल बांध लेती है, तो वह दूर आत्मा में एक गीत बनकर समा जाती है।

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