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अंतिम संदेश

खलील जिब्रान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9549

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विचार प्रधान कहानियों के द्वारा मानवता के संदेश

(14)


और जब पूर्ण रूप से रात्रि हो गई तो उसने अपने कदमों को कब्र की ओर बढ़ाया और वह देवदार के वृक्ष के नीचे बैठ गया, जोकि उस स्थान पर उग आया था। तब एक महान् प्रकाश की छाया आकाश पर छा गई और बगीचा पृथ्वी के वक्षःस्थल पर एक सुन्दर हीरे जैसा जगमगा रहा था।

अलमुस्तफा अपनी आत्मा की एकान्तता में चीखा और बोला, "अपने पके हुए भारी फल से मेरी आत्मा लदी हुई है। वह कौन है, जो आये और अपने को तृप्त करे? क्या ऐसा कोई नहीं है, जिसने उपवास किया है और जिसका हृदय दयापूर्ण और कृपालु है, जो आये और अपना उपवास सूर्य को मेरी प्रथम भेंट द्वारा तोड़े और मेरी स्वयं की अधिकता से मुझे मुक्त करे?”

"मेरी आत्मा सदियों की मदिरा से लबालब भरी हुई है। क्या यहां कोई प्यासा नहीं है, जोकि आये और पान करे?"

“देखो, एक आदमी था। वह एक चौराहे पर आने-जाने वालों की ओर हाथ फैलाकर खडा़ हो गया, और उसके हाथ हीरों से भर गए। औऱ तब उसने आने-जाने वालों को पुकारा और कहा, 'मुझ पर दया करो और मेरे से यह सब ले जाओ। भगवान के नाम पर मेरे हाथों से यह ले जाओ और मुझे सान्त्वना दो।”

किन्तु आने-जाने वालों ने उसे केवल देखा और किसी ने भी उसके हाथ से कुछ न लिया।

इससे तो यही अच्छा होता कि वह एक भिखमंगा होता जो अपना हाथ भिक्षा पाने के लिए फैलाये है - हां कांपता हुआ हाथ और उसे खाली ही अपने हृदय को वापस लौटा लेता है, और फिर उसे बहुमूल्य वस्तुओं से भरकर फैलाता है और कोई भी लेने वाला नही ढूंढ़ पाता।

"और देखो, एक दयालु राजकुमार था जिसने पहाड़ों और रेगिस्तानों के बीच अपने रेशमी डेरे लगाये और अपने सेवकों से अजनवियों तथा घुमक्कड़ों के लिए चिह्न स्वरूप आग जलवाई और उसने अपने गुलामों को रास्तों पर तैनात कर दिया कि कम से कम एक अतिथि तो खोजकर ला सकें। किन्तु सड़कों तथा रेगिस्तान के रास्तों ने कुछ भी न दिया और उन्हें कोई भी न मिल सका।”

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